पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१३९

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षष्ठ प्रभाव १४१ उतारे भी जा सकते हैं ? (तेरे सुंदर अंगों की शोभा पर ही उनके नेत्र मुग्ध हैं, वे अंग तेरे शरीर से अलग ही नहीं हो सकते, ये शृगार तो पृथक् भी किए जा सकते हैं और फिर काम पड़ने पर संयुक्त भी हो सकते हैं)। सुगंध से अन्य वस्तुएँ सुगंधित होती हैं, सुगंध की स्वाभाविक सुगंध क्या उससे कभी पृथक् हो सकती है ? ( कदापि नहीं)। उसे सुगंधित करने के लिए किसी दूसरे की आवश्यकता नहीं होती। ठीक इसी प्रकार मेरे विचार से सब आभूषण तेरे ही कारण सुशोभित होते हैं, तू उनसे सुशोभित नहीं होती। अलंकार-प्रतीप। श्रीकृष्णजू को विच्छित्ति हाव, यथा-( सवैया) (२२७) पान न खाए न पाग रची पलटे पट चित्त कहाँ धरिकै । कंठसिरी बनमाल मनोहर . हार उतारे धरे भरिकै । चंदन चित्रनि लोपि सुलोचन लोकबिलोकनि सों लरिकै । अंग सुभाइ सुबास प्रकासित लोपिही केसव क्यों करिकै ।४७। शब्दार्थ -पाग-पगड़ी। पलटे= बदल लिए । पट = वस्त्र । कंठसिरी3 मोती की माला । अरिकै = हठ करके । लोपि = छिपाकर । लोक-बिलोकनि सों लरिकै = लोगों के नेत्रों से लड़ करके । सुभाइ = स्वाभाविक । भावार्थ-(नायिका की उक्ति नायक प्रति ) आपने न जाने क्या मन में सोचकर न तो पान ही खाया हैं, न सिर पर पगड़ी ही बांधी है। वस्त्र भी बदले हुए हैं ( साधारणतया आप जैसे पाया करते थे वैसे नहीं आए हैं ) । मोतियों की माला, बनमाला और मनोहर हार भी आपने हठपूर्वक उतार डाले हैं। चंदन के चित्र भी शरीर पर से मिटा दिए हैं। लोगों के नेत्रों से नेत्रों को लड़ाकर उन्हें भी छिपाने का प्रयत्न करते हैं ( लज्जालु दिखते हैं )। इस प्रकार आपने अपने सभी शृंगार हटा लिए हैं। पर शरीर की जो स्वाभाविक सुगंध है उसे आप किस प्रकार छिपाएँगे (वह तो अब भी व्यक्त हो रही है)। सूचना-नायक के शरीर की सुगंध में मिश्रित सुगंध से नायिका ने उसका अपराध लक्षित कर लिया है। अथ मोट्टाइत हाव-लक्षण-( दोहा ) (२२८) हेला लीला करि जहाँ, प्रकटत सात्विक भाव । बुधिबल रोकत सोभिजै, कहि मोट्टाइत हाव ।४८) शब्दार्थ-हेला=निःसंकोच खेल खेलना । लीला=वेश बनाना । ४७-खाए-खाइ। रची-बनी। चंदन०-चंदन चित्र कपोलनि लोपि सुलोचन अंजन सों मरिक । बिलोकनि-बिलोचन । ४८-सात्विक-सातुक | सोभिजे-सोहिये सो।