पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१५१

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१५४ रसिकप्रिया शब्दार्थ-उदधिजात = चंद्रमा। गात = गात्र, शरीर । पता=पत्ता, पंखुड़ी । बनाइकै = भली-भांति मन लगाकर। टारि = हटाकर, दूर करके । मारि-पीटकर । बगराइकै = बिखेरकर, फैलाकर । दीह = दीर्घ । बिलास = प्रसन्नता की चेष्टाएँ । से इकै = अर्थात् वहाँ रहकर । ऊनो = उदास भाव की बातें। दूनो = दोनो ही । दूनो- दूना, अत्यधिक । सूचना- -इस कबित्त के प्रथम चरण के लेख के बारे में अनेक अटकलें लगाई गई हैं। सरदार ने बड़ा लंबा चौड़ा वाग्विस्तार किया है । सीधी बात इतनी ही है कि चंद्रमा को देखकर उसके शरीर में जो कामोद्दीपन हो रहा था उसी के लिए उसने चंपकदल पर राहु का चित्र अंकित किया, जिससे उसका तेज मंद पड़े। चंपकदल चुनने का कारण यह है कि उसके शरीर के रंग से उसका साम्य है। अथ अभिसारिका-लक्षण-( दोहा ) (२६२) हित तें के मद मदन तें, पिय पं मिलै जु जाइ । सो कहियै अभिसारिका, बरनी त्रिबिध बनाइ ॥२॥ शब्दार्थ-हित तें = प्रेम से (प्रेमाभिसारिका)। मद तें = गर्व से (गर्वा- भिसारिका ) । मदन तें = काम से ( कामाभिसारिका)। अथ स्वकीया अभिसारिका-लक्षण-(दोहा ) (२६३) अति सलज्ज पग मग धरै, वलत बधुन के संग । स्वकिया को अभिसार यह, भूषन भूषित अंग ।२६। सूचना-निम्नलिखित चार दोहे हस्तलिखित प्रति में नहीं हैं। सरदार ने इन्हें अन्य का माना है-- परकीया अभिसारिका, यथा-~( दोहा ) जनी सहेली सोभही, बंधुबधू सँग चार । मग में देइ बराइ डग, लज्जा को अभिसार ।। सामान्या को अभिसार, यथा-( दोहा ) चकित चित्त साहस सहित, नीलबसनजुत गात । कुलटा संध्या अभिलर, उत्सव तम अधिरात || चहूँ ओर चितवै हँसै, चित चोरै सबिलास । अंगराग-रंजित नितहि, भूषन-भूषित भास ।। कुसुम कंजु कर मंदगति, सखी-संग मग चार । सखी सहेली साथ बहु, बरनि नारि-अभिसार ।। २५-पै-सों, को। २६-सलज्ज-सुलज्ज । पग-पग डग धरै, डगमग भरी, डगमग धरै । चलत-घरति ! बधुन-बधू । स्वकिया-स्वीया । यह-वह, ,