पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१७०

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अष्टम प्रभाव १७३ वर्ण के तुल्य हो गया ( जल गया )। कुंज को कूल = कुंज का तट, छोर । हार-माला । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायक प्रति ) हे घनश्याम, मैंने आज भली भांति कपूर को घोलकर और उसमें चंदन मिलाकर आपके शरीर पर लगाया। पर शरीर छूते ही वह ( जलकर) प्रापके शरीर के वर्ण के तुल्य हो गया । (अर्थात् जल गया)। शुभ फूलों से फूले हुए उस कुंज की ओर देखने पर भी प्रतिकूल ही बात हुई ( विषाद हुआ, हर्ष नहीं ) । आप भूले से फिर रहे हैं । बुलाने पर भी उधर कहाँ जाते हैं, आपका मन किस भ्रम के चक्कर में पड़ा है ? मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि आपका मन आज किसी के मनोहर हार रूपी झूले में झूलता रहा है । इसी से उसे चक्कर आ रहे हैं (आप किसी की स्मृति कर रहे हैं)। अलंकार--हेतूत्प्रेक्षा । श्रीकृष्णजू की प्रकाश स्मृति, यथा-(सवैया) (३१०) बासन बास भए बिष केसव डासन डासन की गति लीने । चंदन चाँदनी त्यौं चित चाहै न चंद्रक चंद चितारस-भीने । पान न खात न पान करै कछु हास-बिलास बिदा करि दीने । ऐसी हैं गोकुल के कुल की जिहिं गोकुलनाथ के ये ढंग कीने ॥२६॥ शब्दार्थ -बासन = वस्त्र । बास = सुगंध । डासन = बिछौना । डास- मच्छड़ ( काटनेवाला)। त्यौं = उसी प्रकार अथवा ओर । चाहै न = चाहता नहीं अथवा देखता नही । चंद्रक = कपूर । चंद =चंद्रमा। चितारस-भीने = बीभत्स, बुरे ( लगते हैं ) । पान करै न = पीती नहीं । बिदा० = छोड़ दिए। अथ उद्वेग-लक्षण-( दोहा ) (३१०) दुखदायक है जात जहँ सुखदायक अनयास । सो उद्वेग दसा दुसह, जानहु केसवदास ॥३०॥ श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न उद्वेग, यथा -(सवैया) (३१२) चंद नहीं विषकंद है केसव राहु इही गुन लीलि न लीनो। कुंभज पावन जानि अपावन धोखें पियो पचि जानि न दीनो। यासों सुधाधर सेष विषाधर नाउँ धरथो बिधि है बुधिहीनो। सूर सों माई कहा कहिये जिन पापी लै आप-बराबर कीनो॥३१॥ शब्दार्थ-कंद जड़, मूल । चंद० = यह चंद्रमन नहीं है विष की जड़ है । इही गुन = इस (अवगुण ) के कारण । लीलि न लीनो-एकदम निगल २६-भए- भयो । त्यों-ज्यों । चंद-बंद । लिहि-जिनि । ये-जे । ३०- जानहु-बरनहु । ३१-इहीं-यही, यहै । बुधि-विधि । जिन-जेहि, यह । पापी -पापु जु।