पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१७७

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१८० रसिकप्रिया निकली जान पड़ी । छर - लांछन, चिह्न । 'छर' का स्त्रीलिंग छरी। लाज = लज्जा का चिह्न भी उनमें नहीं रह गया है। देखत मैं देखे चली आ रही हूं। देह० = शरीर चेतनाशून्य सा हो गया है । बाम = स्त्री। बाय = वायु, बात । बाम की बाय - श्रीकृष्ण को किसी स्त्री की हवा लग गई है अथवा काम की बातव्याधि हो गई है अथवा किसी ने,उनकी बुद्धि ही हरण कर ली है। श्रीकृष्णजू को प्रकाश उन्माद, यथा -(कवित्त) (३२५) सजल चकित चित चितवत चहूँ दिसि, चाहि चाहि रहैं मुख चपल चलत धाइ। सोचत से मन मन कंपत तपत तन, केसौदास रोवत हसत उठ गाइ गाइ । चलहि दिखाऊँ तोहि देखत ही भयो मोहिं, भयो सो कहन आई तोसों अलि अकुलाइ । जैसें कछुआकबाक बकत हैं श्राजु हरि, तैसें जिन नाउँ मुख काहू को निकसि जाइ ।४४। शब्दार्थ-( सखी की उक्ति राधिका या सखी से )। सजल = अश्रुपूर्ण नेत्रों से । चकित०-चकपकाए हुए चित्त से । चितवत० = चारो दिशाओं को देखते हैं, चारो ओर (चकित हो) देखते हैं। चाहि चाहि रहैं = मुख को देख देखकर रह जाते हैं, जो उनके पास जाता है उसका मुख ध्यान देकर देखने लगते हैं तो देखते ही रह जाते हैं। चपल चलत० = फिर दौड़कर बड़ी तेजी से चलने लगते हैं । सोचन० = मन में कुछ सोचते रहते हैं। मन कंपत = मन ही मन, भीतर ही भीतर काँपते से रहते हैं । तपत तन = शरीर तपता रहता हैं । चलहि = (हे सखी) चलो। दिखाऊँ० उन्हें देखकर मेरी जो दशा हुई तुझे दिखला हूँ (समझा हूँ, तेरी भी वही स्थिति हो जाएगी)। उनकी जैसी कुछ दशा है उससे ही मैं व्याकुल होकर तुझसे कहने आई हूँ। माकवाक = अंडबंड, बेसिर पैर की बातें। जैसें कछु० = आज श्रीकृष्ण जैसी बेठिकाने की बातें कर रहे हैं वैसे में ( तो मुझे भय हो रहा है कि ) कहीं किसी का ( तेरा ) नाम न निकल जाए (प्रेम की बातें खुल न जायं )। अथ व्याधि-लक्षरण-(दोहा) (३२६) अंग-बरन बिबरन जहाँ, अति ऊँचे उस्वास । नैननीर परिताप बहु, व्याधि सु केसवदास ॥४॥ शब्दार्थ-अंग-बरन = शरीर का रंग। बिबरनअपने सहज रंग से भिन्न, कष्टसूचक पीला प्रादि रंग । उस्वास = उछ्वास । नैननीर = प्रासू । ४४-तन-गात | केसौदास-केसोराय। तैसे-ऐसे मांझ नाउँ जनि । ४५-ऊँचे-ऊँची। ।