पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१८६

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रसिकप्रिया - भावार्थ-( सखी और नायिका के उत्तर प्रत्युत्तर ) (सखी-) प्रिय से झूठमूठ भी रूठना नहीं चाहिए और इतना अधिक रूठने की तो कल्पना ही नहीं करनी चाहिए । (नायिका ने) विमुख होने पर भला कौन प्रिय होता है? (सखी) कल नंदलाल ने मुझसे तेरे लिए कितनी ही लालसाएँ कीं। ( नायिका-) यदि तू बड़ी भोली थी तो कल ही क्यों नहीं झगड़ा निपटाने आई ? सखी-) अच्छा तो मैं आज ही बीच में पड़ती हूँ। ( नायिका- ) तब तो तू भेद ही डालने के लिए बीच में पड़ेगी। श्रीकृष्ण तो कनेर की तरह बाहर और भीतर से भिन्न स्वरूप वाले हैं ( कनेर की कली ऊपर लाल और भीतर सफेद होती है, श्रीकृष्ण भी दिखाऊ प्रेम करते हैं भीतर से सौतों को चाहते हैं)। ( सखी-) तू जो बात कहती है, क्या उसका कोई साक्षी है जिससे पूछा जा सके ? ( नायिका-) जो बात मैंने अपनी आँखों देखी उसके लिए साक्षी की आवश्यकता ही क्या ? सूचना-नायिका ने स्वयम् अपनी आँखों से श्रीकृष्ण को अन्य स्त्री की ओर निहारते देखा है उसी पर लघुमान किया है। सखी (बहिरंग ) तक बात पहुँच चुकी है इसलिए प्रकाश है । पथ प्रिय को लघुमान-लक्षण-(दोहा) (३५०) प्रिय को कह्यो कर नहीं, प्रिया कौनहूँ काज । उपजत है लघुमान तहँ, बरनि कहत कविराज ।१२। शब्दार्थ-कौनहूं काज =किसी कारण से । श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न लघुमान, यथा-(सवैया) (१५१) भागें कहा करिहौ अवहीं तें इता दुख दीनो कह्यो बिनु कीनें । केसव कौनहु लाज कि लाड़ तें भूलि गई तो भए हित हीनें । भेंटे नहीं भरि अंक लला भरि जीभ न बोली जु बोल नवीनें । देखे नहीं कबहूँ भरि आँ खिनि आजुहिं कैसें चलै चित लीनें ।। शब्दार्थ-कह्यो बिनु कीनें = कहा न करके । कि = अथवा । लाड़ तें = प्यार से । हीने = प्रभाव, कमी। चले चित लीने = ( चित चलै लीनें ) चित्त चंचल कर लिया, चित्त हटा लिया । भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से ) आगे क्या करोगो, कहा हुआ १२-प्रिय-तिय । नहीं-न जहँ । प्रिया-पिया। प्रिया०-प्रिय को नाही लाज । बरनि.-बरनत हैं । १३--करिही-हरिहो । तें-तो । कि-के, की । भए-भई । भेटे-भेटत हो। भरि०-भरि जीव, हंसि जोय । प्राखिनि- नैननि । चल-चलो। -