पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२०४

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२०८ रसिकप्रिया व्याकरण-'अन' का प्रयोग बिना के अर्थ में किया गया है। दोहा) (३८७) इहि बिधि मान छुड़ावहीं, आपुस में नर नारि । पल पल प्रीति बढ़ावहीं, केसवदास बिचारि ॥२८॥ (३८८) प्रिया न प्रीतम सों करे, अति हठ केसवदास । बहुरयौ हाथ न आवई, जौ कै जाइ उदास ।२६। भावार्थ - हाथ न आवई-वश में नहीं होता, अनुकूल नहीं रह जाता। (३८४) बारहि बार न कीजिये, बारक कोजै मान । कहि केसव ज्यों आप में, सदा बढ़े सनमान |३०| शब्दार्थ-बारक=( केवल ) एक बार । ज्यों-जिस प्रकार । आप में-परस्पर। (३६०) प्रीति बिना भय होय नहिं, भय बिन होइ न प्रीति । प्रीति रहै जहँ भय रहे, यहै मान की रीति ।३१) भावार्थ-प्रेम के बिना भय नहीं होता और भय के बिना प्रेम नहीं होता, अतः दोनो साथ साथ रहते हैं। यही मान का कारण और ढंग है । (३६१) गर्ब, ब्यसन, धन-त्याग तें; निष्ठुर बचन प्रवास । लालन बिप्रियकरन तें, पिय तें होइ उदास ।३२। तात्पर्य-नायक से नायिका इन कारणों से उदास होती है-गर्व से, व्यसन से, धन के नष्ट होने से, कड़ी बातों से प्रवास में रहने से, लोभ में पड़ने से, मन के विरुद्ध कार्य करने से । (३६२) मान बिबिध बरने बिबुध, जहाँ बिबिध बुधिबास । केसव करना करि कछू , कहियत बिरह-प्रवास ॥३३॥ शब्दार्थ-बिबुध = विशेष पंडित । बुधिवास = अनेक प्रकार की बुद्धि- पूवक की गई युक्तियों का निवास जहाँ था। करुना करि = करुणा के द्वारा होनेवाले । बिरह-प्रवास = प्रवास के कारण उत्पन्न विरह । इति श्रीमन्महाराजकुमारइंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां विप्रलंभ- शृंगारमानमोचनं नाम दशमः प्रभावः ।१०। ३०-कीजिये-कोजई ।।३१-जह-जिहिं । ३२-करन तें-करन तिय। १३-बिबिध०-बिरह। बिबुध--बिबिध । कहियत--कोजत बिरह प्रकास ।