पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२०९

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2 'धाइयतु है एकादश प्रभाव २१३ से जिनका जो जीता है ( जो तुझे प्राणों की भांति प्यार करते हैं) ऐसे श्रीकृष्ण के बिना भी तू अब भी जी रहा है ? ( यह कार्य ठीक नहीं )। सूचना-'नंदकुमार तो गौन कियोई' से प्रवासविरह । प्राणों के प्रति उक्ति होने से प्रच्छन्न है। श्रीराधिकाजू को प्रकाश प्रवासविरह-वर्णन, यथा-( कबित्त ) (४०१) कौन के न प्रीति, को न प्रीतमहिं बिछुरत, याही के अनोखो पतिव्रत गाइयत है। केसौदास जतन किये ही मलें आवै हाथ, और कहा पच्छिनि के पाछे धाइयत है। उठि चलि जौ न माने काहू को बलाइ जाने, मानसै जु पहिचानै ताकें आइयत है । या तौ है आजु हो मिलौं कि मरि जाउँ ऐसें, भागि लागें मेरी माई मेह पाइयत है ।। शब्दार्थ-कौन के किसके ( हृदय में ) प्रेम नहीं होता। को न प्रीतमहिं बिछुरत = किसे प्रियवियोग नहीं होता। जतन .... (पिंजड़े से निकलकर उड़ जानेवाला) पक्षी यत्न करने से ही हाथ माता है, नहीं तो क्या कोई पक्षी के पीछे पीछे दौड़ता फिरता है ( अर्थात् नहीं)। बलाइ-बला। उठि चलि० = यदि नहीं मानती है तो चल उठ चलूं, किसी की बला जाने ( मुझे क्या)। मानसै=मनुष्य को। मानसे जु० = जो मनुष्य को पहचाने उसी के यहाँ पाया जाता है (यह तो जैसे आदमी ही नहीं पहचानती ) । मरि जाऊँ = मर जाऊँ (मरकर जा मिलू)। माई = संबोधन में । मेह = ( मेघ ) जल । आगि लागें० = भला कहीं आग लगने पर (मनाने से) पानी बरसता है। उक्ति-सखी की उक्ति सखी से । अलंकार-लोकोक्ति । सूचना- -सखियों की परस्पर बातचीत है, अतः बात बाहर तक पहुंच चुकी है इसी से प्रकाश है। श्रीराधिकाजू को विरह-भयविभ्रम, यथा-( सवैया ) (४०२) कोकिल केकी कुलाहल हूल उठी उर में मति की गति लूली। केसव सीत सुगंध समीर गयो उड़ि धीरज ज्यों तन तूली । ६-याही के-तेरे ही। किये ही-करें ही। चलि-चलो। मानसै-मान सों । तो है०-तो है नोखो ब्रत । ऐसे-माई, x । माई-भाली।