पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२१८

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२२२ रसिकप्रिया भावार्थ-(धाय की उक्ति कृष्ण प्रति ) आज मैं जो नायिका ले आई हूँ, उसकी छोटी और मनमोहनी वय है, बड़े नेत्र और लंबे केश हैं, पार्वती की भांति गोरी है, शंकर की साली की भांति भोली है, सांचे में ढली हुई, पतली और सुडौल कमर है। प्रत्येक अंग खराद पर चढ़ाकर खरादा हुआ (सुडौल) है, यह सुगंध से सुवासित है, शरीर अमृत से सिक्त है । यह देवलोक से प्रव- तीर्ण (अप्सरा सी) या समुद्र से निकाली हुई (लक्ष्मी) सी सुंदर है प्राज इसीसे हंसे खेलें और बोलें वाले मैं कल काम की कुमारी सी दूसरी नायिका ले पाऊँगी। सूचना-(१) यह छंद 'कविप्रियां' में विक्रियोपमा के उदाहरण में दिया गया है, पर वहाँ पूर्वार्द्ध इस प्रकार है- केसौदास कुंदन के कोस ते प्रकासमान, चिंतामनि ओपनी सों श्रोपिकै उतारी सी। इंदु के उदोत ते उकीरि ऐसी काढ़ी, सब सारस सरस सोभा सार तें निकारी सी। (२) 'कुमारी' शब्द कहने से 'धाय' की उक्ति मानी जायगी। जनी को वचन राधिका सों, यथा-( कबित्त ) (४१६) सोभा को सघन बन मेरो घनस्याम नित, नई नई रुचि तन हेरत हिराइयै । केसौदास सकल सुबास को निवास, करि विविध बिलास हास, त्रास बिसराइये । ऊँख-रस केतक महूख-रस मीठो है, पियूखहू की पैली घाँ है जाकों नियराइये । चोरी चोरों नैननि चुराएँ सुख कौन जौ लौं, पिय-मन माहिं मन मेलि न चराइयै ।। शब्दार्थ-रुचि = शोभा । हिराइखो जाता है, मन मुग्ध हो जाता है । केतक= कितना ( मीठा) है । महूख = ( मधु ) शहद । पैली = परली, उस पार, पराकाष्ठा। घौ पोर । भावार्थ-(दासी का वचन नायिका प्रति ) मेरे घनश्याम तो शोभा के घने वन हैं, नित्य ही उनके शरीर की नई नई शोभा देखकर मन मुग्ध हो जाता है । उनका शरीर सब प्रकार की सुगंध का घर है । उनके द्वारा अनेक प्रकार के हासों का विलास होने से त्रास (विषाद ) भूल जाया जाता है। ऊख का रस कितना मीठा है, मधु में भी कितना मीठापन हैं। उनके निकट जाने से तो ५-जनी के०-प्रिया प्रति जनी को बचन । बन-घन। महूख-मयूख । खां है-बातो।