पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४२ रसिकप्रिया मिलता जाय । इस प्रकार चाहे करोड़ों उपाय करो, पर मिलने का सुख तब तक मिल ही नहीं सकता ( जब तक मिला न जाय )। थोड़ा दर्पण लेकर अपने अंगों को तो देख ले ( दुबली होती जा रही है ) । इस प्रकार प्रिय से मन ही मन कब तक मिलती रहेगी ? कृष्ण सों विनय-( कबित्त ) (४४६) कंज कैसे फूले नैन दारौँ से दसन ऐन, बिंब से अधर, हास सुधा सो सुधारयो है । बेनी पिकबैनी की त्रिबेनी सी बनाइ गुही, बार कै सेवार करिहाँ को करि हारयो है। कीने कुच अमल कलपतरु के से फल, केसौदास यातें बिधि मुगध बिचारथो है। देखौ न गुपाल सखी मेरी को सरीर सब, सोने सों सँवारि सब सोंधे सों सँवारयो है ।। शब्दार्थ-दायौं = (दाडिम) अनार । ऐन = ठीक । बिंब = बिबाफल, कुंदरू । सुधारयो = बनाया हुआ (आनंददायक )। बेनी = वेणी, चोटी। पिकबैनी = कोयल के से कंठ ( वाणी ) वाली । कै = करके । भावार्थ-उसके नेत्र कमल के से हैं, दाँत ठीक अनार ( के दाने ) की भाँति हैं, अोठ बिबाफल से हैं और हँसी अमृत के समान आनंददायक है । उस कोकिल के से कंठ वाली की चोटी त्रिवेणी ( गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम ) की भाँति, केश सेवार के से करके ब्रह्मा कमर बनाते बनाते अंत.में हार ही बैठा। उसने कल्पवृक्ष के सुंदर फलों के से उसके कुच बनाए हैं, इसलिए ब्रह्मा ( अपनी ) उस सृष्टि पर स्वयम् मुग्ध है। इसलिए हे गोपाल आप मेरी सखी का शरीर देखिए न! मुझे तो एसा जान पड़ता है कि वह (शरीर) सोने से बनाया गया है और सुगंध से संवारा गया है (सोने में सुगंध नहीं होती, पर उसका शरीर देखकर ऐसा जान पड़ता है कि सोना और सुगंध दोनों एकत्र हैं )। राधा को मनाइबो-( सवैया) (४४७) 'नाही सिखावति नाहीं भली सखि पावक सों तिनको मुंहडादौ । भौंहनि के भुलवौ भटू भावनि नैननि के मत सों हित बादौ । ५-कंज-सुख । विब-लाल । गुहो-बीर । बार० बार सो बारीक, धार सो बारीक, बार ज्वों सिवार । अमल-अमल अमलका के फल के से। सब सोधे-मनौं मैन, मनु सैन, मानो मैन । संवारयो-सुधारयो । >