पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२९

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( २६ ) ये तीन प्रकार के हैं-अंगज, स्वाभाविक और प्रयत्नज । अंगज ३, स्वाभाविक १०, अयत्नज ७ । भाव, हाव और हेला ये तीन अंगज होते हैं । यहाँ 'भाव' का अर्थ है कामविकार । अल्पसंभोगेच्छाप्रकाशक भ्रू नेत्रादि विकार को हाव कहते हैं । जब विकार बहुत स्फुट रूप में प्रकट हो तो उसे हेला कहते हैं। ये अंगज कहलाते हैं, अंग या शरीर से प्रकट होने के कारण । स्वाभाविक दस होते हैं-लीला, विलास. विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्ठायित, कुट्टमित, बिब्बोक, ललित, विहृत । ये स्वभावसिद्ध होते हुए भी कृतिसाध्य होते हैं, यत्नज होते हैं। स्त्रियों में स्वाभाविक सात्त्विक अलंकार इनके अतिरिक्त पाठ और हो सकते हैं—मद, तपन, मौग्ध्य, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित तथा केलि ।* प्रयत्नज सात होते हैं-- शोभा, कांति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य और धैर्य । अंगज और अयत्नज ये दस पुरुषों में भी हो सकते हैं। किंतु विशेष शोभाकारक होते हैं नायिकाओं में ही । केशव ने उपर्युक्त दस स्वाभाविक अलंकारों के अतिरिक्त 'हाव' शीर्षक के अंतर्गत 'हेला', 'मद' और 'बोधक' को ग्रहण किया है। इस प्रकार इन्होंने कुल १३ हाव माने हैं । 'हावों' की ऐसी कल्पना ‘रसतरंगिणी' से चली है । उसमें उक्त दस स्वभावज अलंकारों को 'हाव' नाम दिया गया है। हिंदी में 'हेला' को भी उसी में मिला लिया गया है । पूर्वोक्त अतिरिक्त आठ स्वभावज अलंकारों में से हिंदीवाले कुछ को या सभी को हाव के अंतर्गत कर के कहते हैं । बोधक हाव का वर्णन सबसे प्रथम हिंदी में इन्होंने ही किया हैं- गूढ़ भाव को बोध जहँ केसव औरहि होइ । तासों बोधक हाव सब कहत सयाने लोइ ॥६:५४ कोई कोई इसे 'बोध' कहते हैं। भिखारीदास ने रससारांश में 'बोधक' को 'क्रियाचातुर्य' कहा है । पद्माकर जगद्विनोद में उसका लक्षण यों देते हैं- ठानि क्रिया कछु तिय पुरुष बोधित करै जु भाव । रसग्रंथन में कहत हैं तासों बोधक हाव ॥ ४६६ ।। 'मौग्ध्य' के प्रतिपक्ष में 'चातुर्य-सूचक 'बोधक' की कल्पना की गई है । 'दास' ने शृंगारनिर्णय में भरतकथित दस स्वाभाविक अलंकारों में ही अन्य अतिरिक्त स्वभावज अलंकारों को अंतर्भुक्त करने का प्रयास किया है । इस प्रसंग में दूसरी विचारणीय स्थिति यह है कि स्वभावज अलंकारों को इन्होंने श्रीकृष्ण में भी माना है। इस संबंध में रसतरंगिणीकार ने स्थिति स्पष्ट कर दी है । नारियों में ये स्वाभाविक होते हैं, परपुरुषों में औषधिक-

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