पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/३८

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( ३८ ) कही जाती है। केशव ने अपने साहित्यिक नवयौवन में अपभ्रंश या पुरानी हिंदी में हाथ माँजा । फिर उन्होंने व्रजी में रचना की । उसे काव्य के अनुरूप परिष्कृत किया। अंत में संस्कृत की ओर मुड़े । यही मोड़ वे संभाल नहीं सके । रसिकप्रिया की भाषा सबसे अधिक वाग्योगपूर्ण है । उसमें वजी का पूर्ण वैभव दिखाई देता है। यदि केशव इसी प्रकार की भाषा लिखते रहते तो उनका इस क्षेत्र में विरोध न होता । टोकाएँ और टीकाकार केशवदास के तीन ग्रंथों पर टीकाएँ लिखी गई हैं- रसिकप्रिया, कवि- प्रिया और रामचंद्रचंद्रिका पर। कविप्रिया के अंतर्गत आनेवाले 'शिखनख' के हस्तलेख पृथक् भी मिलते हैं और उसपर एक टीका भी सं० १७६२ के पूर्व हुई है (देखिए राजस्थान में हिंदी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, दूसरा भाग, पृष्ठ १४०)। रसिकप्रिया की सबसे पुरानी टीका संस्कृत में है । टीका सं०१७५५ में की गई। टीकाकार श्रीरत्नमणि के शिष्य समर्थ हैं। टीका का नाम प्रमोदिनी है और यह सुगमार्थप्रबोधिनी है । हिंदी में रसिकप्रिया के सबसे प्राचीन टीका- कार सूरति मिश्र हैं। इनकी टीका का नाम रसगाहकचंद्रिका या जोरावर- प्रकाश है । यह सं० १७६१ वि० में निर्मित हुई थी। जोधपुर के राजपुस्त- कालय में संवत् १७६४ आश्विन बदी एकादशी रविवार का लिखा एक खंडित हस्तलेख रसिकप्रिया सटीक नाम से संगृहीत है (खोज-१६०२-२५६ ) । कहीं यह सूरति मिश्र की टीका की ही प्रतिलिपि न हो। यदि उससे भिन्न है तो यह दूसरी टीका है । टीकाकार का नाम अज्ञात है। इसके तीसरे टीकाकार श्रीकुशलधीर हैं जिन्होंने गुर्जर-राजस्थानी में इसकी टीका गद्य में प्रस्तुत की । टीका का निर्माणकाल अज्ञात है, लिपिकाल सं० १७९६ आसोज (आश्विन ) सुदी ४ शुक्रवार है। इसके पूर्व वह कभी अवश्य लिखी गई। पर कब ? कहना कठिन है। सूरति मिश्र की टीका के पूर्व की भी हो सकती है। इसके चौथे टीकाकार हैं 'कासिम' ( खोज, ६- १४७ ) । इस ट्रीका का रचनाकाल अज्ञात है। मियाँ कासिम ने अपने को वाजिदसुत लिखा है। ये वाजिद कौन थे ? कहा नहीं जा सकता। इसकी पांचवीं टीका श्रीजगतसिंह की की हुई है, जो भिनगाराज्य के राजपरिवार के महाराजकुमार थे। इनका समय सं० १८७७ वि० के आसपास है। दिग्विजयभूषण के रचनाकार श्रीदिग्विजयसिंह के ये पुत्र थे। इन्होंने टीका का नाम 'जगतविलास' रखा है ( खोज, २३-१७६ एच )। टीका गद्य में लिखने का कारण यों लिखा है-