पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/६१

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प्रथम प्रभाव काटने की तरह (दुःखदायिनी) लगती थी। (आज ) उन्हीं के चले जाने पर ( उनके चले जाने की बात ) सुनकर भी ( वे ही कान ) एक नहीं, दोनों के दोनों, भली भांति चुप हो गए हैं । (शांत हैं, ऐसा समाचार सुनकर कट नहीं गए ) पहले श्रीकृष्ण के देखने में थोड़ी देर के लिए भी परदा पड़ जाने पर, चूंघट की आड़ में होने पर जो आँखें फूटने लगती थीं आज वे ही आँखें न जाने कब से ब्रज को (श्रीकृष्ण से) सूना देख रही हैं (और फूटती नहीं हैं)। किसी ( अर्थात् अपने अंगों ) की क्या परीक्षा ली जाय, अब तो अपने प्राणों को बेहयाई का टीका लगाकर जी रही हैं । (२४) अथ राधिका की प्रकाश वियोग शृंगार यथा--( सवैया) जिनके मुख की दुति देखत ही निस-बासर केसव दीठि अटी। पुनि प्रेम बढ़ावन की बतियाँ तजि आन कळू रसना न रटी। जिनके पद पानि उरोज सरोज हिये धरिकै पल नैन घटी। तिनके सँग छूटतहीं फटु रे हिय तोहिं कहा न दरार फटी ।२४। सूचना-यह छंद प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियों और लीथो वाली प्रति में नहीं है। सरदार कवि ने इस पर टीका नहीं लिखी है । नारायण कवि ने तो इसे 'केशव' का छंद ही नहीं माना है। (२५) अथ श्रीराधिकाजू को प्रकाश-वियोग-शृंगार, यथा-( कवित्त ) सीतल समीर टारि चंद्रचंद्रिका निवारि, केसौदास ऐसे ही तो हरषु हिरातु है। फूलन फैलाइ डारि झारि डारि घनसारु, चंदन कों ढारि चित्त चौगुनो पिरातु है । नीरहीन मीन मुरझाइ जीवै नीर ही तें, छीर छिरके तें कहा धीरजु घिरातु है । पाई है तैं पीर कैधों यों ही उपचारु करै, आगि को तो डाढ्यो आँगु भागिहीं सिरातु है ॥२५॥ शब्दार्थ-टारि = हटा दे । चंद्रचंद्रिका = चंद्रमा की चाँदनी। निवारि = रोक दे । हरषु हिरातु है -हर्ष खोया जा रहा है । घनसा= कपूर । मीन = मछली। छीर० = दूध के छिड़कने से । धिरातु है - (धैर्य) धरा जा सकता है । पाई है तैं पीर = क्या तूने मेरी पीड़ा का मर्म समझा है (अर्थात मेरी इस पीड़ा का क्या कारण है ? )। यों ही = व्यर्थ । उपचारु = उपाय ( रोग-शांति के लिए औषध करना )। डाढ्यो = जला हुआ । सिरातुर है,। ठंढा हो जाता है। २५-डारि-डारे । ढारि-टारु । मुरकाइ-मुरझाति । तें-पै । छिरके तें- के छिरीके । डाढयो-वाध्या । प्राँगु-अंग ।