पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७५

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७६ यथा- रसिकप्रिया -( सवैया ) (६५) मोहिबो मोहन की गति को गतिही पढ़ी बैन कहा धौं पढ़ेगी। ओप उरोजनि की उपजें दिन, काई मढ़ अँगिया न मढ़ेगी । नैननि की गति गूढ़ चलाचल केसवदास अकास चढ़ेगी । माई, कहाँ यह माइगी दीपति जौ दिन द्वै इहि भाँति बढ़ेगी ।१६। शब्दार्थ-मोहन = श्रीकृष्ण और मोहन मंत्र । गति - मनोगति, मन की चेतना । गति ही = चाल ही । बैन = ( वचन ) वाणी। भोप = कांति ( बाढ़)। उपजै = उत्पन्न होने पर। दिन = दिनदिन, नित्य । काइ- काया । चलाचल = चंचल तथा स्थिर । अकास चढ़गी 3 (मुहावरा) सर्वोपरि होगी। माइगी - अँटेगी। भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) हे माई, जब 'चाल ही से यह मोहन की चेतना को मोहित करना पढ़ चुकी है ( चाल से ही मोहन को मोह लेती है । तब वचनों से (बोलकर) न जाने क्या (मंत्रादि) पढ़ेगी (कैसा जादू डाल देगी ) । कुचों में कांति (बाढ़ ) उपजने पर काया तो स्थूल हो जाएगी पर वे स्वयम् चोली में न अँट सकेंगे। नेत्रों की गूढ़, चंचल एवम प्रचंचल गति ( यदि इसी प्रकार बढ़ती रही तो) सर्वोपरि हो जायगी । यह (शरीर की ) शोभा यदि दो ( कुछ ) दिनों तक इसी भाँति बढ़ती रही तो कहाँ अँट सकेगी ? ( कहीं नहीं )। अलंकार-अधिक (प्राधेय से आधार के अधिक होने में ) । अथ नवयौवनभूपिता-मुग्धा-लक्षण-( दोहा ) (६६) सो नवजोबनभूषिता, मुग्धा को यह बेस । बालदसा निकसै जहाँ, जोवन को परबेस ।२०। शब्दार्थ-बेस = (वेश) रूप । बालदसा = शिशुता, लड़कपन । निकसै% छटे, हटे । परबेस = ( प्रवेश ) । यथा-( सवैया) (६७) केसव फूलि नची भृकुटों कटि लूटि नितंब लई बहुकाली । बैननि सोच सँकोच सु नैननि छूटि गई गति की चल चाली। घोसक धीर धरौ न धरौ अब लै तुमकों मिलिबो बनमाली। वाको अयान निकारन कौं उर आए हैं जोबन के अविताली ॥२१॥ शब्दार्थ पूलि = प्रसन्न होकर । बहुकाली = बहुत दिनों की। सँकोच = लज्जा । चल - चंचल । योसक - थोड़े समय तक। बनमाली = श्रीकृष्ण (संबोधन में) । वाकों = उस ( नायिका) का । अयान = ( अज्ञान ) भोला- पन । अमिताली = अफताली, प्रबंधक ( किसी स्थान पर पहले से जाकर राजा के ठहरने का प्रबंध करने वाला १६-पढ़ी-पढ़े । काइ-काहि ।