पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७६

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. तृतीय प्रभाव भावार्थ-(सखी की उक्ति नायक से ) हे कृष्ण, थोड़े समय तक धैर्य घरो अथवा न धरो अब मैं (उस नायिका को, लेकर तुमसे मिलूगी। क्योंकि उसके ( लड़कपन के ) भोलेपन को निकालने के लिए यौवन का अफताल ( प्रबंध ) उसके हृदय ( वक्षस्थल ) में हो चुका है। जिसके कारण हर्ष से उसकी भौंहें नाच उठी हैं। बहुत दिनों की ( लड़कपन की पाली हुई ) उसकी कमर को नितंबों ने लूट लिया है ( कमर पतली और नितंब स्थूल हो गए हैं)। वह सोच समझकर बोलने लगी है। नेत्रों में लज्जा आ गई है तथा उसकी चाल से चंचलता दूर हो गई है। अलंकार-समाधि ( यौवनावस्था के आगमरूप कारण की प्राप्ति से मिलाने का कार्य सुगम होने से )। सूचना-(१) खंडित हस्तलिखित प्रति और लीथोवाली प्रति में इसके अनंतर यह सवैया मिलता है- धनु भ्र धरि लोचन लोल अमोल सो बान कटाच्छ की कोर कढ़ी। मुख-माधुरी बानी बसी चतुराई सु केसव मोहिनी साथ पढ़ी। कुच तंबू तने तन लाज बिराजति बार गहे चहुँ ओर मढ़ी। न बढ़ो दुति बालहिं बालकता हरि, अंग अनंग की फौज चढ़ी। (२) खंडित प्रति में एक और उदाहरण भी इसके आगे मिलता है। वही लीथोवाली प्रति में नवलअनंगा के उदाहरण में दिया गया है। देखि आगे छंदसंख्या २३ की सूचना (२)। अथ नवल अनंगा-मुग्धा-लक्षण-(दोहा) (६८) नवलअनंगा होइ सो, मुग्धा केसवदास । खेलै बोलै बालबिधि, हँसै त्रसै सविलास ।२२। शब्दार्थ-बालबिधि = लड़कपन की भाँति । त्रसै = डरै । .( कबित्त ) (६६) चंचल न हजै नाथ, अंचल न ऐंचो हाथ, सोवें नेक सारिकाहू सुक तौ सुवायौ जू । मंद करौ दीप-दुति चंद-मुख देखियत, दौरिकै दुराइ ऊँ द्वार त्यों दिखायौ जू। मृगज - मराल - बाल बाहिरे बिडारि देहुँ, भायौ तुम्हें केसव सु मोहू मन भायौ जू। २१-नची-नचें। अयान-अपान । अबिताली-अवताली । [पाठांतर-लोल०-लोलत मेल सु कांड । मोहिनी०-मोहनता सु । हरि- हति ।] यथा-