पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/७८

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तृतीय प्रभाव ७६. अथ लज्जाप्रायारति-मुग्धा-लक्षण ( दोहा ) (७०) मुग्धा लज्जाप्रायरति, बरनत कबि इहिं रीति । करै जुरति अति लाज सों, पतिहिं बढ़ावति प्रीति ।२४। यथा-( सवैया) (७१) बोली न हौं वे बुलाइ रहे हरि पाइ परे अरु ओलियौ गोड़ी। केसव भेंटिबे कौं भरि अंक छुड़ाइ रहे जक हौं नहिं छोड़ी। सूधे चितैबै कौं केतौ कियो सिर चौपि उठाइ अँगूठनि ठोढ़ी। मैं भरि चित्त तऊ चितयो न रही गडि नैननि लाज निगोड़ी ।२। शब्दार्थ-ौलियो ओड़ी = 'अोली प्रोड़ना' का अर्थ है-दुपट्टा या अंचल पसारकर किसी वस्तु की भिक्षा माँगना, भीख चाहना। कैतो कियो अनेक उपाय किए । निगोड़ी = निरवंसी, एक प्रकार की गाली। भावार्थ-(नायिका की उक्ति सखी प्रति) हे सखी, नायक ने मुझे बुलाना चाहा परंतु मैं (लज्जा के कारण) नहीं बोली। तब वे मेरे पैरों पड़े और भोली ओड़ी। आलिंगन करने के लिए कहा, पर मैंने हठ नहीं छोड़ा (अस्वीकार ही करती रही)। तब उन्होंने संमुख देखते रहने के लिए अनेक उपाय किए। उन्होंने एक हाथ (के अँगूठे) से सिर दबाया और दूसरे (दाहिने) हाथ के अंगूठे से ठोढ़ी दबाई (हाथ से सिर ऊपर किया पर) मैंने उन्हें चित्त भर नहीं देखा। निगोड़ी लज्जा मेरे नेत्रों में कुछ ऐसी ही गाड़ी बैठी थी अलंकार-विशेषोक्ति। मुग्धाशयन-लक्षण-(दोहा) मुग्धा सोइ रहै नहीं, पियसँग सुनहु सुजान । जौ क्यों हूँ सोवै सखी, सुख नहिं ताहि समान ।२६। -(सवैया) (७३) पाइ परें मनुहारि किये पलिका पर पाउँ धरयो भय-भीने । सोइ गई कहि केसव कैसहुँ कोरहि कोरिक सौहनि कीने । साहस कै मुख सों मुख छवै छिन में हरि मानि सबै सुख लीने । एक उसाँसहिं के उससे सिगरेई सुगंध बिदा करि दीने ॥२७॥ [ पाठांतर-दंत-क से । दाननि कों-दांत मुख; नीको प्रति । हंसति- लखति । अखरानि-पाखरन । सकुचौ०-सकुचे से बैन नैन । केसोदास-केसौराह। प्राजु-अब । देखी०-सुनी जैसी तैसी।] २४-कबि-हैं । बढ़ावति-बढ़ावै । २५-हौं नहिं-मैं पै न । गडि-गहि । २६-सुनहु-सुनो । २७-किये-करें। कोरहिं०-कोरक रोर हूँ। सबै-महा। (७२) यथा-