पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९७

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(१२२) चतुर्थ प्रभाव अथ दर्शन-लक्षण-(दोहा) (१२१) ए दोऊ दरसैं दरसु, होहिं सकाम सरोर । दरसन चारि प्रकार को, बरनत हैं कबि धोर ।। शब्दार्थ-चारि प्रकार साक्षात् या प्रत्यक्ष-दर्शन, चित्र-दर्शन, स्वप्न- दर्शन और श्रवण-दर्शन । एक जु नीके देखिये, दूजें दरसन चित्र । तीजें सपने देखिये, चौथे श्रवननि मित्र ।२। शब्दार्थ-नीकें देखियै = अर्थात् प्रत्यक्ष । सूचना-'सरदार' की 'टीका में एक दोहा इसके बाद यह भी दिया गया है-- दरसन नीके दरसि यहि, दंपति प्रति सुख मान । ताहि कहत साक्षात हैं, केसवदास सुजान । साक्षात् दर्शन--( दोहा ) (१२३) नींद भूख दुति देह की, गई सुनतही जाहि । को जानै है है कहा, केसव देखें नाहि ॥३॥ शब्दार्थ-देखें = देखने पर। सूचना--'सरदार' की टीका में इसके बाद भी एक दोहा और दिया गया है और कहा गया है कि केशव का नहीं जान पड़ता- देखन को प्रिय रूप हंग, तजे सकल जगकाज । कोटि जतनहूँ कै रही, रहे नैन गड़ि लाज ॥ श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न साक्षात् दर्शन, यथा-( सवैया ) (१२४) कहि केसव श्रीबृषभानु कुमारि सिँगार सिँगारि सबै सरसै। सबिलास चितै हरिनायक त्यों रतिनायक-सायक से बरसै । कबहूँ मुख देखति दर्पन लै उपमा मुख की सुख मा सरसै। जनु आनंदकंद सँपूरन चंद दुरथो रवि-मंडल में दरसै ४। शब्दार्थ-सिंगार सिंगार सबै स रस = सब प्रकार के शृंगार सजकर सुशोभित होती है। सबिलास = मंगिमासहित, शृंगारी चेष्टानों से १--कवि-मति । २--नी-नीकेहि, नीको। दूजे-दूजो। तोले- तीजों । सपने-सपनो जानिये । चौय -चौथो । श्रवननि:-श्रवन सु मित्र । ४-सिंगार -सिंगारि सिंगार । लै-मैं । संपूरन-सुपूरन । युक्त।