पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९८

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" चतुर्थ प्रभाव स्यों=ोर । रतिनायक-सायक = कामदेव के बारण। उपमा० = मुख की उपमा इस शोभा को स्पर्श करती है, मुख की शोभा ऐसी जान पड़ती है । दुरयो= छिपा हुआ । जनु.. .दरसै = मानो आनंददायक पूर्ण चंद्र रविमंडल में छिपा हुआ दिखाई पड़ रहा है ( दर्पण रविमंडल है, मुख पूर्ण चंद्र है )। अलंकार-उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा । श्रीराधिकाजू को प्रकाश साक्षात् दर्शन, यथा-( सवैया ) ११२५)पहिले तजि पारस आरसी देखि घरी घसे घनसारहि ले। पुनि पोंछि गुलाब तिलौंछि फुलेल अँगौछे में आछे अंगौछनि कै। कहि केसव मेद जुबाद सों माँजि इते पर आँजे मैं अंजन दै। बहुरथो दुरि देखौं तौ देखौं कहा सखि लाज तो लोचन लागिये हैं।५। शब्दार्थ-घरीकु = घड़ी भर । घनसार = कपूर । फुलेल = फूलों में वास कर निकाला गया सुगंधित तेल । तिलौंछि = तेल से ( लगाकर ) साफ करके । अँगौछे= ( अंगौछे से ) पोंछा। पाछे = भली भांति । अंगौछनि कै = अंगौछों से, रूमाल से । मेद = कस्तूरी। जुबाद = ( फारसी ) बिलाव के अंडकोश से निकली हुई एक प्रकार की कस्तूरी । भावार्थ-( नायिका की उक्ति सखी से ) हे सखी, पहले मैंने आलस्य छोड़कर नेत्रों को दर्पण में देखा और घड़ी भर कपूर लेकर उनमें मला । इसके बाद भली भाँति गुलाब से उन्हें पोंछा । फुलेल लगाकर उन्हें साफ किया। भली भांति अंगौछों से उन्हें पोंछा । इतना ही नहीं प्रत्युत कस्तूरी और जुबाद से भली भांति मांजकर (रगड़कर) उनमें अंजन लगाया। इसके बाद मैंने छिपकर नायक को देखा, पर इतने पर भी नेत्रों में .लज्जा लगी है (निकली नहीं)। अलंकार-विशेषोक्ति (पूर्ण कारण के होते हुए भी कार्य न होने से)। सूचना-'कविप्रिया' के छठे प्रभाव में गुरु वस्तुओं के वर्णन में यह सवैया लजा का गुरुत्व दिखाने के लिए उदाहरण में दिया गया है । श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न साक्षात् दर्शन, यथा -( सवैया ) (१२६) भाल गुही गुन लाज लटें लपटी लर मोतिन की सुखदनी। ताहि बिलोकति आरसी लै कर आरस सों इक सारसनैनी। केसव कान्ह दुर दरसी परसी उपमा मति की अति पैनी सूरज-मंडल में ससि-मंडल मध्य धंसी जनु जाइ त्रिबैनी ।। ५-धरीकु-कछुक । घसे-घसै, घस्यौ । जुबाद-जिबाद, जबाद, जबादि । बहुरचो-बहुरों, बहुरे । तो-जो । देखौ-तो देखि रो। लागिय है-लागेइ है, लागि प्रहै । ६-श्रीकृष्णजू-नायक । सवैया-विजै छंद । मति को-मति कों मति त । जन-मनुः । जाइ-ताहि, जाहि ।