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प्रस्तावना

काव्य की मीमांसा भारत में बहुत प्राचीन काल से होती आ रही है। काव्य के श्रव्य और दृश्य भेद भी पुरातन हैं और जहाँ तक काव्य-मीमांसा की बात है दोनों में मान्यताएँ भी भिन्न भिन्न रही हैं। आगे चलकर दोनों का एकीकरण हो गया। श्रव्य-काव्य के मीमांसक वाणी के वैचित्र्य को काव्य का लक्षण मानते थे और दृश्य-काव्य के विवेचक रस को। एक पक्ष की दृष्टि निर्मित कृति पर थी और दूसरे की उसके प्रभाव-परिणाम पर। एक कर्ता को देखता था, दूसरा ग्राहक को। एक कथन और कथनकर्ता को सामने रखता था और दूसरा दृश्यत्व और दर्शक को। 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्' कहनेवाला रस-भाव से अपरिचित रहा हो ऐसी बात नहीं है। काव्यकृति में व्याकरण की भाँति 'शब्द' और पुराणेतिहास की भाँति 'अर्थ' का प्राधान्य नहीं है, 'शब्दार्थ' का सहितत्व ही सब कुछ है। इसी 'सहित' से 'साहित्य' भी बन गया। इसके पूर्व 'काव्य' था, 'साहित्य' अभिधान नहीं। 'साहित्य' में, काव्य में, वागर्थ संपृक्त होते हैं। आगे चलकर 'शब्दार्थ' काव्य का शरीर कहा गया, उसके चारुत्व की खोज होने लगी, उसके सौंदर्य की छानबीन की जाने लगी। वामन को कहना पड़ा--'काव्यं ग्राह्यं अलंकारात्। सौन्दर्यमलंकारः।' शरीर और सौंदर्य के अन्वेषण से अभी परितुष्ट न होकर उसके प्राण की प्रतिष्ठा का विचार किया गया और कुंतक ने घोषणा की-'वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्'। श्रव्य-काव्य शास्त्र-परंपरा की यह चरम सीमा है।

दृश्य-काव्य के विवेचकों की परंपरा 'रस' से ही आरंभ होती है। 'रस' के क्षेत्र में फिर ध्वनि-व्यंजना का विचार अग्रसर हुआ और सामाजिक या सहृदय-भावुक को लेकर विषय विमर्श किया जाने लगा। श्रव्य-काव्य के