पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१००

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काम का चय कच्चा ही समझा जायगा। इसका निचोड़ यह निकला कि इस संचार का प्रयासी कवि विषय को औता या दर्शक के सामने नहीं रखता वास्तव में किसी वर्णित पात्र के सामने रखता है। इस [ ढंग 1 से जो कविता श्रोता या दर्शक को संबोधन करके [ कही ] जाती हैं और जिसका उद्देश्य पाठक या ओता में भाव [संचार ] करके उसे किसी ओर प्रवृत्त करना [ रहूता] है वह रस-काव्य नहीं ।* मतलब यह है कि रस-विधायक कवि का काम श्रोता या पाठक में भाव - संचार करना नहीं उसके समक्ष भाव का रूप प्रदर्शित करना है [ जिसके ] दर्शन से श्रोता के हृदय में भी उक्त भाव की अनुभूति होती है जो प्रत्येक दशा में आनंदस्वरूप ही रहता है। अब बिचारने की बात है कि क्या प्रत्येक दशा में इस रीति से ‘साधारणीकरण होता है [ या] भाव का उद्रेक उसके स्वरूप , दर्शन मात्र से होता है। दो राजा युद्ध के लिये संनद्ध हैं। उनमें से किसी के संबंध में कोई ऐसी बात नहीं कही गई है कि जिससे हमें उस पर क्रोध हो सके। दोनों समान रूप से सज्जन, वीर और उदार हैं। उनमें से यदि किसी के क्रोध का दृश्य सामने लाया जायगा तो क्या दूसरे पर हमें भी क्रोध आ सकता है ? मैं समझता हूँ नहीं । ऐसे वर्णन में हमें केवल उस भाव को दुसने की निपुणता का अनुभव प्रधान रूप से होगा जिसका लगाव हमारे क्रोध से न होगा। साहित्य के आचार्यों ने काव्य से प्राप्त अनुभव को क्यों आनंदस्वरूप कहा इसका कारण उक्त उदाहरण से प्रत्यक्ष हो जाता है। इस विवेचन के अनुसार मनोरंजन के अतिरिक्त काव्य का और कोई उच्च उद्देश्य नहीं ठहरता। | * [ यहाँ पर मूल प्रति में फूल बना हुआ है पर उससे संबद्ध अंश अनुपम ।।]