पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१०२

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काव्य का चय दोनों का संयोग परम आवश्यक है। सच्चा कबि उसी व्यक्ति या बस्त का स्वरूप कल्पना में लाएगा जिसके प्रति उसकी किसी प्रकार की अनुभूति होगी । पात्र द्वारा भाव की व्यंजना करने में कवि के दो रूप होते हैं—सह्ज और आरोपित । यदि व्यंजित किए जानेवाले भाव का आलंबन सामान्य है-ऐसा है जो मनुष्य मात्र के चित्त में वहीं भाव उत्पन्न कर सकता है तो समझना चाहिए कि कवि अपने सहज रूप में उसे प्रकट कर रहा हैं। जैसे रावण के प्रति राम का क्रोध। यदि व्यजित किया जानेवाला भाव ऐसा नहीं है तो समझना चाहिए कि वह उसे आरोपित रूप में प्रकट कर रहा हैं; जैसे राम के प्रति रावण का क्रोध । आरोपित भाव कवि अनुभव नहीं करता, कल्पना द्वारा लाता है। आश्रय की स्थिति में अपने को समझकर आलंबन के प्रति कवि भी यदि उसी भाव का अनुभव करता है। जिस भाव का अाश्रय करता है तो कवि उस भाव का प्रदर्शन सहज रूप में करता है। यदि कवि का भाव उदासीन है या अनौचित्य-ज्ञान के कारण विरक्त है तो आश्चय के भाव का प्रदर्शन वह केवल आरोपित या आहार्य रूप में करता हैं। ऐसे स्थल पर रसाभास याभावाभास ही मानना चाहिए। कवि या आता के मन की अनौचित्यजन्य विरक्ति के कारण भाव में जो त्रुटि आती है उसी की ओर लोगों ने ध्यान दिया पर आचार्यों ने तिर्यक् विषयक रतिभाव का जो उल्लेख रसाभास के भीतर किया उससे यह स्पष्ट लक्षित हो जाता है कि जिस भाव के प्रति १ [ प्रतिनायकनिष्टये तदवदघमपात्रतिय्गादिगते ।। शृङ्गारे अनौचित्यम् ............॥ |–साहित्य-दर्पण ३-२६४ ]