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रस-मीमांसा



कवि या श्रोता का मन उदासीन है उसको भी रसाभास या भावाभास के ही भीतर वे रखना चाहते थे। मृगी के प्रति मृग जिस रति भाव का अनुभव करता है वह अनुचित नहीं है, बात यह है कि मृगी रूप आलंबन में मनुष्य श्रोता या पाठक अपने दांपत्य रति की पूर्ण चरितार्थता का अनुभव नहीं कर सकता।

अपने यहाँ के आचार्यों के दिए हुए संकेतों के अनुसार प्राचीन काव्यों की प्रकृति का अनुसंधान करने से पूर्ण रस का यही स्वरूप निर्दिष्ट होता है जो ऊपर कहा गया। इसे स्वीकार कर लेने पर भारतीय काव्य की प्रकृति के निरूपण के लिये ‘आदर्शात्मक' (Idealistic), ‘शिक्षात्मक' (Didactic) आदि रस और भाव के क्षेत्र के बाहर के शब्दों के व्यवहार की आवश्यकता नहीं रह जाती। लोक-कल्याण के निमित्त प्रतिष्ठितधर्म और नीति के लक्ष्य पर पहुँचानेवाला एक दूसरा अधिक सुगम और आकर्षक मार्ग अलग खुला हुआ है। इसका पूर्ण आभास हमारे यहाँ के प्राचीन काव्य देते हैं। आदर्शात्मक कहने से चरित्र में असाधारणत्व का होना अनिवार्य समझा जाता है। पर आगे चलकर दिखाया जायगा कि पूर्ण रस के संचार के लिये सवत्र असाधारणत्व अपेक्षित नहीं होता। साधारण असाधारण दोनों प्रकार के चरित्र द्वारा पूर्ण रस की अनुभूति हो सकती है। पूर्ण रस में कसर आलंबन के अनौचित्य और अनुपयुक्तता के कारण होगी, साधारणत्व के कारण नहीं । आलंबन के प्रति श्रोता की जिस उदासीनता का उल्लेख हुआ है वह सच पूछिए तो विशेषत्व के कारण होती है। जो आलंबन मनुष्य-जाति की सामान्य प्रकृति से संबंध नहीं रखता, आश्रय की विशेष प्रकृति या स्थिति से ही संबंध रखता है, उसके प्रति