पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१०४

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झाब्य झा चय १३ आश्रय के भाव का भागी श्रोता या पाठक पूर्ण रूप से नहीं हो सकता । इस सहानुभूति के अभाव से रस का पूरा परिपाक न होगा। राम के प्रति रावण के, शकुंतला के प्रति दुर्वासा के. एक अच्छे राजा के प्रति दूसरे अच्छे राजा के क्रोध के साथ योग देने श्रोता या पाठक का क्रोध नहीं जायगा । अतः ऐसे क्रोध के अनुभाव-संचारी से पुष्ट वर्णन द्वारा भी रौद्र रस की पूर्ण अनुभूति नहीं हो सकती । पर कवि के लिये यह आवश्यक नहीं कि वह सर्वत्र पूर्ण रस ही लाया करे ।। | भारी भारी महाकाव्यों का प्रधान विषय बनाने के योग्य अवश्य प्राचीन महाकवि असाधारण चरित्र ही मानते थे । आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की वान्धारा जब प्रवाहोन्मुख हुई थी तब उन्होंने ऐसे चरित्र की जिज्ञासा नारद जी से की थी। महाकाव्य के योग्य दिशं पुरुष और आदर्श चरित्र जब उन्हें मिल गया तब वे रामायण ऐसे विशद महाकाव्य की रचना में प्रवृत्त हुए। पर उस प्रधान स्थायी चरित्र के भीतर सामान्य चरित्रों का स्वाभाविक वर्णन भी बराबर है। उसमें यहाँ से वह तक राम और भरत के चरित्र का असाधारण उत्कर्ष और रावण के चरित्र का असाधारण अपकर्ष ही नहीं है, बल्कि कैकेयी की स्त्री-सुलभ साधारण ईर्षा, मंथरा की साधारण कुटिलता, सुग्रीव की व्यावहारिक कृतज्ञता आदि की भी पूरी झलक उसके भीतर है। सारांश यह कि आदिकवि के महाकाव्य में देवता और राक्षस ही नहीं हैं साधारण मनुष्य भी हैं। कालिदास ने रघुवंश और कुमारसंभव ऐसे महाकाव्यों के लिये ही असाधारण आदर्श चरित्र की आवश्यकता समझी, मेघदूत ऐसे खंडकाव्य के लिये || [ वाल्मीकीय रामायण, बालकांड, प्रथम सर्ग १-५ तक 1]