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रस-मीमांसा

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रस-मीम जैसा • नहीं, जिसमें न विरही यक्ष असाधारण है न उसका विरह और • ने मेघ के मार्ग में पड़नेवाले प्राकृतिक दृश्य । पर वह काव्य संस्कृत-साहित्य में अपने ढंग का सबसे निराला है। इसी प्रकार मालविकाग्निमित्र ऐसे नाटकों की रचना आदर्श चरित्र लेकर नहीं हुई है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि सब प्रकार के * भारतीय काव्य आदर्श-प्रधान हैं, मनुष्य-जाति में अधिकतर पाई। जानेवाली साधारण वृत्तियों का वास्तव चित्रण कहीं है ही नहीं। । अधिकांश काव्यों में कृत्रिमता अवश्य पाई जाती है पर उसका कारण सर्वत्र उच्च आदर्श चरित्र या दृश्य की योजना नहीं है बल्कि अंधपरंपरानुसरण और रीति-ग्रंथों का कठोर शासन है। | रीति-ग्रंथों का बुरा प्रभाव | काव्य-रीति का निरूपण थोड़ा बहुत सव देशों के साहित्य • में पाया जाता है। पर हमारे यहाँ के कवियों को रीति-ग्रंथों ने जैसा चारों ओर से जकड़ा वैसा और कहीं के कवियों को नहीं । इन ग्रंथों के कारण उनकी दृष्टि संकुचित हो गई, लक्षणों की कवायद पूरी करके वे अपने कर्तव्य की समाप्ति मानने लगे, काव्य का स्वरूप संघटित करने के स्थान पर वे बाहरी सजावट में अधिक उलझने लगे । सारांश यह किं वे इस बात को भूल चले कि किसी वर्णन का उद्देश्य श्रोता के हृदय पर प्रभाव डालना है। बात यह है कि ये ग्रंथ सीमा का अतिक्रमण कर गए । रसनिरूपण में भावों और रसों को गिनाने का यह प्रभाव पड़ा कि जो बातें भाव और रसों के निर्दिष्ट शब्दों के भीतर आती हुई उन्हें प्रत्यक्ष रूप से न दिखाई पड़ीं उनके वर्णन से उन्हें कोई प्रयोजन ही न रह गया। केवल गिनी गिनाई बातों को निर्दिष्ट