पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

६५ काव्य का चय शैली के अनुसार आँख मूंदकर कह दिया, बस पूर्ण रस की रसम अड़ा हो गई। प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन का हिंदी काव्यों में जो अभाव पाया जाता है उसका मुख्य कारण यही है । रस, नायिका, अलंकार' आदि के लक्षण और उदाहरण जानना जब साहित्य के पाठकों के लिये आवश्यक हो गया तब कवियों को एक ही पद्य में पूर्णं रस लाने का हौसला बढ़ा। कुछ बातें तो कविजी ने कहीं और कुछ बातें नायिका, अलंकार आदि का इशारा पाकर पाठक अाप लगा लेने लगे। इस प्रकार उस स्वरूप-चित्रण से बहुत कुछ छुट्टी पा जाने से कवि लोग पद-क्रीड़ा में प्रवृत्त हुए, वण्यं वस्तुओं को गिनाने और उनका वर्गीकरण करने से बाह्य और आभ्यंतर दोनों सृष्टियों की अनेकरूपता का काव्यों में अभाव सा हो चला । जिस प्रकार बाह्य दृश्यों के अनंत रूप हैं। उसी प्रकार मनुष्य की मानसिक स्थिति के भी ; जिस प्रकार ‘पृथ्वी पर अनेक प्रकार के दृश्य हैं उसी प्रकार मनुष्य भी अनेक स्वभाव और चरित्र वाले हैं। उद्दीपन की कुछ वस्तुओं के गिनाने और नायक-नायिका के धीराधीरा, धीरोदात्त इत्यादि भेद निर्दिष्ट करने से दोनों ओर की अनेकता पर पर्दा सा डाल दिया गया। धीरोदात्त, धीरोद्धत, धरललित और धीरप्रशांत जो चार प्रकृति के नायक कहे गए हैं, क्या उनमें जितनी प्रकृति के मनुष्य हो सकते हैं सब आ जाते हैं ? विविध प्रवृत्तियों के मेल से संघटित जो अनेक स्वभाव के मनुष्य दिखाई पड़ते हैं उनके स्पष्टीकरण के लिये मानव-प्रकृति के अन्वीक्षण की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता उक्त चार प्रकार के ढाँचे तैयार मिलने से पिछले कवियों को न रह गई। इसी से हमारे यहाँ के अधिकांश नाटकों में नादस्थ पात्र निर्दिष्ट साँचों में ढले हुए होते हैं। नायिकाओं के जो भेद किए गए वे भी केवल श्रृंगार की दृष्टि से, सर्वव्यापार