पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
९६
रस-मीमांसा



व्यापी प्रकृति-भेद की दृष्टि से नहीं। निम्न वर्ग की अशिक्षिता स्त्रियों को सामान्य द्वेषपूर्ण कुटिलता और इधर की उधर लगाने की प्रवृत्ति का जो उदाहरण मंथरा के रूप में वाल्मीकि ने दिया वह नायिकाभेद के ग्रंथों में नहीं मिलेगा। सारांश यह कि नायक-नायिकाभेद चरित्र-चित्रण में सहायक नहीं हए, बाधक हुए । उनके अनुसार जिन प्रबंध-काव्यों या नाटकों में पात्रों की योजना हुई उनमें मानव-प्रकृति के बहुत ही थोड़े अंश का चित्र हमें मिलता है—सो भी परंपराभुक्त और पिष्टपेपषित । इसी से सामान्य चरित्र-चित्रों की जो अनेकरूपता हम योरप के काव्यों और नाटकों में पाते हैं वह यहाँ के नहीं ।

जिस प्रकृति-क्षेत्र के एक एक अंग को दर्शन कवि का काम है। उसके बीच पगडंडियों निकाल देने से कवियों की यात्रा तो सुगम हो गई पर उसका अधिकांश उनकी दृष्टि से दूर हो गया। कवि को प्रकृति-कानन में विचरण करना रहता है, दूसरे प्रयोजन से यात्रा करनेवालों के समान केवल इस पार से उस पार निकल जाना नहीं । आवश्यकता से अधिक लीक बना देने से लीक. पीटनेवालों की संख्या अवश्य बहुत बढ़ गई–पर इससे काव्य के व्यापक उद्देश्य की अधिक सिद्धि नहीं हुई। लीक पीटने की शिक्षा रीति-ग्रंथ लिखनेवाले आचार्यों ने ही दी यह बात कुछ अलंकारों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाती है। रूपकाशयोक्ति को लीजिए जिसमें पहेली के ढंग पर केवल उपमानों का , कथन होता है, उपमेयों को पाठक अपना समझते बूझते रहते हैं। यह तभी संभव है जब उपमान नियत हों। इस वस्तु की उपमा इस वस्तु से कवि देते आए हैं यह साधारण तभी हो सकती हैं जब एक ही उपमा का खूब पिष्टपेषण हुआ हो।