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रस-मीमांसा



भावों के प्रकृत संबंध का प्रत्यक्षीकरण-जगत् के साथ हमारी रागात्मिका वृत्ति का सामंजस्य—वह सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही काव्य अमर या चिरस्थायी होते हैं जिनमें मनुष्यमात्र अपने भावों के आलंबन पाते हैं।

जो काव्य ने कवि की अनुभूति से संबंध रखते हैं न श्रोता की, उनमें केवल कल्पना और बुद्धि के सहारे भावों के स्वरूप का प्रदर्शन होता है। यदि हम किसी भाव के स्वरूप-प्रदर्शन मात्र का विचार करते हैं श्रोता के हृदय में उसके संचार का नहीं, तो कविता केवल ऊपरी दिलबहलाव या मनोरंजन की वस्तु प्रतीत होती है और कवि का कार्य चित्रकार के कार्य से अधिक महत्त्व का नहीं जान पड़ता। जैसे चित्रकार नाना रंगों के मेल से पहले लोगों का ध्यान चित्र की ओर ले जाता है फिर आकार और भाव प्रदर्शित करके उनका मनोरंजन करता है वैसे ही कवि भी अपने सुंदर और चटकीले शब्दों द्वारा श्रोता या पाठक को आकर्षित करता है, फिर किसी भाव का स्वरूप दिखाकर बैठे ठाले लोगों को एक प्रकार के आनंद का अनुभव करा देता है। जो काव्य की पहुँच यहीं तक समझते हैं वे इतना ही कह सुनकर संतुष्ट हो जाते हैं कि जिस प्रकार चित्रकार अपने रंगों से पदार्थों का रूप दिखाता है, उसी प्रकार कवि अपने शब्दों में दिखाता है। वे प्रदर्शन की कुशलता मात्र पर संतुष्ट होते हैं प्रदर्शित वस्तु चाहे जो कुछ हो । प्रदर्शित वस्तु या विषय का मनुष्यमात्र की वासनात्मक प्रकृति से कहाँ तक संबंध है—वह वस्तु या विषय मनुष्यमात्र के हृदय को कहाँ तक स्पर्श कर सकता है-यह देखने का झंझट वे नहीं उठाते। यदि कविजी ने किसी के हाथी की झूल का वर्णन कर दिया और उसमें सहस्रों सूर्य उतार खाए या किसी का त्यौरी बदलना, दाँत पीसना और बड़बड़ाना दिखा