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मीमांसक दोष का परिहार करने पर ध्यान देते थे, पंडित-बुध उसके लिये कसौटी थे—'कविः करोति काव्यानि स्वादं जानन्ति पंडिताः' । पर 'रस' के निर्णायक सहृदय हुए। काव्य हृदय से हृदय का व्यापार माना गया । समाज उसमें प्रधान हुआ । अतः औचित्य-सामाजिक मर्यादा रस के लिये आवश्यक मानी गई । रस का रहस्य औचित्य में मिला। ,रस की परमावधि औचितीं हुई । भामह, वामन, कुंतक की परंपरा और भरत, भट्टनायक, अभिनवगुप्त की परंपरा भिन्न भिन्न है। आगे चलकर दोनों का संमिश्रण हो गया । रस ही काव्य में मुख्य माना गया । साहित्यदर्पणकार ने कहा-'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' । काव्य-मीमांसा में रस-मीमांसा का प्राधान्य हुआ। सौंदर्यानुभूति से आगे बढ़कर रसानुभूति का चिंतन मनन होने लगा ।

यह कहना कुछ कठिन है कि श्रव्य-काव्य की मीमांसा प्राचीन है या दृश्य काव्य की । पर यह प्रसिद्ध है कि--'अलंकारा एवं काव्ये प्रधानमिति प्राच्यानां मतम्'। श्रव्य-काव्यवालों का पक्ष अलंकार या सौंदर्य श्रव्यकाव्य के कर्ता वाल्मीकि ही आदिकवि कहलाते हैं। भरत के नाट्यशास्त्र में अलंकारों का उल्लेख है। जो भी हो, समाज के विकास के साथ ही समाज का प्राधान्य भी हुआ होगा । कर्ता के स्थान पर ग्राहक का महत्व बढ़ा होगा । वाल्मीकि-कृत सारी कथा कुश-लव ने गाकर सुनाई थी। नटों का नाम 'कुशीलव' भी है। तो क्या श्रव्य -काव्य की दृश्य काव्य में इतनी पुरानी है ? राम जाने । चाहे जो हो, सौंदर्यानुभूति पर अड़ना श्रारंभिक स्थिति है और रसानुभूति से पूरा पड़ना पश्चात्कालिक निश्चिति । भारत प्राचीन देश है इसमें काव्य-संबंधी विचार-विमर्श भी पुरातन है। इसी से सौंदर्यानुभूति से संतुष्ट न होकर यह रसानुभूति में लीन हुआ । तो क्या पाश्चात्य देशों में सौंदर्यानुभूति ( एस्थेटिक टेस्ट ) पर रुकना अर्वाचीनत्व का द्योतक है? रसानुभूति की सी चर्चा वहाँ भी श्रारंभ हो चुकी है--