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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा कलानिपुणता’ और ‘सहृदयता’ अब दोनों एक ही वस्तु नहीं हैं। बहुत से लोग सहृदय होते हैं, पर अपनी प्रबल वासनात्मक अनुभूति को व्यक्त करने की निपुणता उनमें नहीं होती। इसी प्रकार इसका उलटा भी होता है। बहुत से काव्यों के बन जाने और लक्षण-ग्रंथों की भरमार हो जाने से इधर बहुत दिनों से हृदयहीनों के लिये जैसे बुद्धि और कल्पना के सहारे काव्य का सा स्वरूप खड़ा कर देना सुगम हो गया है वैसे ही काव्य का रसिक या शौकीन बनना भी । भाव का विषय केवल वह व्यक्ति ही नहीं होता जिसे आलंबन कहते हैं उसके रूप, गुण, कर्म आदि भी होते हैं। कभी कभी तो अन्य भाव के कारण श्रोता की दृष्टि निर्दिष्ट व्यक्ति वा आलंबन से छुटकर बर्णित रूप, गुण आदि के सहारे वैसा ही कोई और व्यक्ति अपने भाव के आश्रय के लिये कल्पित कर लेती है। ‘कुमारसंभव' में पार्वती के अंग प्रत्यंग के वर्णन और शिव के प्रेम को पढ़कर ओता उस वर्णन द्वारा रतिभाव का अनुभव तो करता है पर अनुभूति के साथ पार्वती देवी को कल्पना में नहीं रखता-इटाए रहता है। इसी प्रकार राम के इस विलाप को पढ़कर-- के वृक्षाः पर्वतस्या गिरिगहनलता वायुना वीज्यमाना रामोऽहं व्याकुलारमा दशरथतनयः शोकशुकेश दग्धः । जिम्बोष्टी चादनेत्री सुविपुलजघना बदमागेन्द्रकाञ्ची हा | सीता केन नीसा मम हृदयगता को भवान्केन दृष्टा ।। -[ हनुमाटक, अंक १, श्लोक १० ] कोई अपनी प्रियतमा के ध्यान में भी लीन हो सकता है। इस प्रकार रत्यादि स्थायी भावों का सामान्य रूप से प्रतीत होना साहित्य के आचार्यों ने स्वीकार किया है।