पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/११२

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काम का चय मेरी समझ में रसास्वादन का प्रकृत स्वरूप आनंद शब्द से व्यक्त नहीं होता। ‘लोकोत्तर अनिर्वचनीय आदि विशेषणों से न तो उसके अवचिकत्व का परिहार होता हैं न प्रयोग का प्रायश्चित्त । क्या क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि आनंद का रूप धारण करके ही श्रोता के हृदय में प्रकट होते हैं, अपने प्रकृत रूप का सर्वथा विसर्जन कर देते हैं, उसे कुछ भी लगा नहीं रहने देते ? क्या ‘विभावत्व' उनका स्वरूप हुरकर उन्हें एक ही स्वरूप-सुख का दे देता है। क्या दुःख के भेद सुख के भेद से प्रतीत होने लगते हैं? क्या मृत पुत्र को लिये विलाप करती हुई शैव्या से राजा हरिश्चंद्र का कफन माँगना देख सुनकर असू नहीं आ जाते, दाँत निकल पड़ते हैं ? क्या महमूद के अत्याचारों का वर्णन पढ़कर यह जी में नहीं आता कि वह सामन आता तो उसे कच्चा खा जाते ? क्या कोई दुःखांत कथा पढ़कर बहुत देर तक उसकी खिन्नता नहीं बनी रहती ? ‘चित्त का यद् द्रुत होना' क्या आनंदगत हैं ? इस आनंद शब्द ने काव्य के महत्त्व को बहुत कुछ कम कर दिया है-उसे नाच तमाओं की तरह बना दिया हैं। सूक्ति और काव्य ‘आनंद' शब्द ने जिस प्रकार काव्य की नीयत को वदनाम किया है, उसी प्रकार 'चमत्कार' शब्द ने उसके रूप को बहुत कुछ बिगाड़ा है। उसके कारण विलक्षण रीति से कोई बात कहना, चाहे वह भावोत्तेजक या भावोत्पादक हो या न हो, कविता करना समझा जाने लगा। बात बनानेवाले भी कंवि बनाए जाने लगे। अनूठी बात सुनने की उत्कंठा रखनेवाले अपने को काव्य-रसिक समझने लगे। काब्य का प्रकृत स्वरूप