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रस-मीमांसा

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१०४ इम-भौमसा.. यथा यथा ते सुयशोऽभिषईते सिताँ त्रिलोकीमिव कप्तुमुचतम् । तथा तथा में हृदयं विदुयतै प्रियाज़ कालीगलवशङ्कया ।।। | -[ भौज-प्रबंध, लोक ] भला कहिए तो यह किसी हृदय की वास्तविक अनुभूति हो सकती है ? श्रोता के हृदय पर इस उक्ति का कोई गहरा प्रभाव पड़ सकता है ? क्या यश की शुक्लता का अनुभव चूने की कलई के रूप में ही हुआ करता हैं ? इस प्रकार बातें बनाने को लोग कविता समझने लगे। फिर तो कविता सिर्फ एक मजाक की चीज या शब्दचातुरी मात्र रह गई। ‘सखुनसंज' और 'शायर एक ही चिड़िया का नाम समझनेवाले मुसलमार्गों के आने पर यह धारणा और भी जड़ पकड़ गई। पर जो सहृदय हैं वे ‘सुक्ति और कविता को एक ही चीज नहीं समझ सकते हैं ‘सुभाषित’ और ‘भोजप्रबंध की सब सूक्ति कविता नहीं कहता सकतीं । हाँ, भावों का उद्रेक करनेवाली रस-सूक्ति को अवश्य कविता कह सकते हैं। ' | इस प्रकार अनुभूति को जवाब मिल जाने पर जब कल्पना ही का सहारा रह गया, तब ‘स्वतःसंभवी वस्तु की अपेक्षा ‘कवि-प्रौढाक्ति-सिद्ध वस्तु' की ओर कवियों का ध्यान अधिक रहने लगा । उत्प्रेक्षा की भरमार रहने लगी–बस्तु और व्यापार का सूक्ष्म निरीक्षण न रह गया। यहाँ पर यह विचार करना | १ [ वचनविदग्ध, बात समझनेवाला । ] २ [ काव्य के अतिरिक्त लोक में भी दिखाई पड़नेवाले ट, पट आदि पदार्थ ।] ।। [ कवि की वचन:विदग्धता से कल्पित पदार्थ को बाहर नहीं दिखाई देते, असे कीर्ति का आ उज्वल मानना आदि।]. विता कह सकनभूति को जनतसंभवी व न अधिक