पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

काध का वक्ष्म आवश्यक हुआ कि काव्य में कल्पना का स्थान क्या है और उसका उपयोग क्या है क्योंकि कुछ लोग काव्य को कल्पना की क्रीड़ा मात्र मान उसे पढ़े लिखों की गुपवाजी कहा करते हैं। | काव्य का आभ्यंतर स्वरूप या आत्मा भाव या रस है। अलंकार उसके बाह्य स्वरूप हैं। दोनों में कल्पना का काम पड़ता हैं । जिस प्रकार विभाव अनुभाव में हम उसका प्रयोग पाते हैं उसी प्रकार: रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों में भी । जब कि रस ही काव्य में प्रधान वस्तु हैं तब उसके संयोजकों में जो कल्पना का प्रयोग होता है वही आवश्यक और प्रधान ठहरा। रस का आधार खड़ा करनेवाला जो विभावन व्यापार हैं कल्पना का प्रधान कर्म क्षेत्र वही है। पर वहाँ उसे अनुभूति वा रागात्मिका वृत्ति के आदेश पर कार्य करना पड़ता है। उसे ऐसे स्वरूप -नख़ड़े करने पड़ते हैं जिनके द्वारा रति, होस, शोक, क्रोध, घृणा आदि स्वयं अनुभव करने के कारण कवि जानता है कि ओता भी अनुभव करेंगे। अपनी अनुभूति की व्यापकता के कारण मनुष्यमात्र की अनुभूति को तथा उसके विषयों को अपने हृदय में रखनेवाले ही ऐसे स्वरूपों को अपने मन में ला सकते हैं। ३ [मलाइए 'काम में प्राकृतिक दृश्य, चिंतामणि, दूसरा भाग, पृ० १]