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रस-मीमांसा



इनमें से प्रथम तो मनुष्य से लेकर कीट, पतंग, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि सृष्टि का कोई भी पदार्थ हो सकता है। किंतु दूसरा हृदय-संपन्न मनुष्य ही होता है। प्राचीन कविगण इन दोनों का स्वरूप प्रतिष्ठित करने में -इनका बिंब-प्रहण कराने में-कल्पना का पूरा पूरा उपयोग करते थे । वाल्मीकीय रामायण को मैं आर्यकाव्य का आदर्श मानता हूँ। उसमें राम के रूप, गुण, शील, स्वभाव तथा रावण की विरूपता, अनीति, अत्याचार आदि का पूरा चित्रण तो मिलता ही है, साथ ही अयोध्या, चित्रकुट, दंडकारण्य आदि का चित्र भी पूरे ब्योरे के साथ सामने आता है। इन स्थलों के वर्णन में हमें हाट, बाट, वन, पर्वत, नदी, निर्झर, ग्राम, जनपद, इत्यादि न जाने कितने पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण मिलता है।

साहित्य के आचार्यों की दृष्टि में वन, उपवन, ऋतु आदि ऋगार के 'उद्दीपन 'मात्र हैं; वे केवल नायक या नायिका को हँसाने या रुलाने के लिये हैं। जब यही बात है तब फिर इनका संश्लिष्ट चित्रण करके श्रोता को ‘बिंब-प्रहण' कराने से क्या प्रयोजन ? उनके नाम गिनाकर अर्थ-प्रहण करा दिया ; बस, हो गया । पर सोचने की बात है कि क्या प्राचीन कवियों ने इनका वर्णन इसी रूप में किया है ? क्या विश्वहृदय वाल्मीकि ने वनोंऔर नदियों आदि का वर्णन इसी उद्देश्य से किया हैं ? क्या महाकवि कालिदास ने ‘कुमारसंभव 'के आरंभ में ही हिमालय को जो विशद वर्णन किया है वह केवल श्रृंगार के उद्दीपन की दृष्टि से ? कभी नहीं । ये वर्णन पहले तो प्रसंग-प्राप्त हैं, अर्थात् आलंबन की परिस्थिति को अंकित करनेवाले हैं। इनके बिना आश्रये और आलंबन शुन्य में खड़े मालूम होते हैं। इस पर यों गौर कीजिए ! राम और लक्ष्मण के दो चित्र आपके सामने हैं ।