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रस-मीमांसा

 अपनी छाया डालकर चित्रकूट के पर्वतों को नीलवर्ण कर देते हैं तब नाचते हुए नीलकंठों ( मोरों) केा देखकर सभ्यताभिमान के कारण शरीर चाहे न नाचे, पर मन अवश्य नाचने लगता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे दृश्यों को देखकर हर्ष होता है। हर्ष एक संचारी भाव है। इसलिये यह मानना पड़ेगा कि उसके मूल में रति-भाव वर्तमान है और वह रति-भाव उन दृश्यों के प्रति है।

रीति-ग्रंथों की बदौलत रस-दृष्टि परिमित हो जाने से उसके संयोजक विषयों में से कुछ तो ‘उद्दीपन 'में डाल दिए गए और कुछ ‘भाव-क्षेत्र 'से ही निकाले जाकर 'अलंकार' के हाते में हाँक दिए गए। इसी व्यवस्था के अनुसार वस्तुओं के स्वाभाविक रूप और क्रिया का वर्णन ‘स्वभावोक्ति 'अलंकार हो गया ; जैसे, लड़कों का खेलना, चीते का पूँछ पटककर झपटना, हाथी का गंडस्थल रगड़ना इत्यादि । पर मैं इन्हें प्रस्तुत विषय मानता हूँ जिन पर अप्रस्तुत विषयों का उत्प्रेक्षा आदि द्वारा आरोप हो सकता है। वात्सल्य रति-भाव के प्रदर्शन में यदि बच्चे की क्रीड़ा का वर्णन हो तो क्या वह अलंकार मात्र होगा ? प्रस्तुत वणर्य विषय अलंकार नहीं कहा जा सकता। वह स्वयं रस के संयोजकों में से है ; उसकी शोभा मात्र बढ़ानेवाला नहीं । मैं आलंकार को केवल वर्णन-प्रणाली मात्र मानता हूँ; जिसके अंतर्गत करके किसी वस्तु का वर्णन किया जा सकता हैं। वस्तु-निर्देश. अलंकार का काम नहीं । इस दृष्टि से कई अलंकार ऐसे हैं जिन्हें अलंकार न कहना चाहिए; जैसे स्वभावोक्ति, अतिशयोक्ति से भिन्न अत्युक्ति, उदात्त इत्यादि । सारांश यह कि स्वभावोक्ति अलंकार नहीं है और इसीसे उसका ठीक ठीक लक्षण भी नहीं स्थिर हो