पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११४
रस-मीमांसा



है। यह प्रेम रूप-सौंदर्यगत नहीं है; सच्चा स्वाभाविक और हेतु-ज्ञान-शून्य प्रेम है। इस प्रेम को रूप-सौंदर्यगत प्रेम नहीं पहुँच सकता।

इससे यह स्पष्ट है कि अपने सुख-विलास के अथवा शोभा और सजावट की अपनी रचनाओं के आदर्श को लेकर जो प्रकृति के क्षेत्र का अवलोकन करते हैं और अपना प्रेमानंद केवल इन शब्दों में प्रकट करते हैं कि- 'अहाहा ! कैसे लाल-पीले और सुंदर फूल खिले हैं, पेड़ किस प्रकार यहाँ से वहाँ तक एक पंक्ति में चले गए हैं, लताओं का कैसा सुंदर मंडप सा बन गया है, कैसी शीतल, मंद, सुगंध हवा चल रही है' उनका प्रेम कोई प्रेम नहीं-उसे अधूरा समझना चाहिए । वे प्रकृति के सच्चे उपासक नहीं । वे तमाशबीन हैं, और केवल अनोखापन, 'सजावट या चमत्कार देखने निकलते हैं। उनका हृदय मनुष्यप्रवर्तित में पड़कर इतना कुंठित हो गया है कि उसमें उन सामान्य प्राकृतिक परिस्थितियों में जिनमें, अत्यंतआदिम कल्प में मनुष्यजाति ने अपना जीवन व्यतीत किया था तथा उन प्राचीन मानव-व्यापारों में जिनमें वन्य दशा से निकलकर वह अपने निर्वाह और रक्षा के लिये लगी, लीन होने की वृत्ति दब गई अथवा यों कहिए कि उनमें करोड़ों पीढ़ियों को पार करके आनेवाली अंतरसंज्ञावर्तिनी वह अव्यक्त स्मृति नहीं रह गई जिसे वासना या संस्कार कहते हैं। वे तड़क-भड़क, सजावट, रंगों की चमक-दमक, कलाओं की बारीकी पर भले ही मुग्ध हो सकते हों, पर सच्चे सहृदय नहीं कहे जा सकते ।

कॅकरीले टीलों, ऊसर पटपरों, पहाड़ के ऊबड़-खाबड़ किनारों या बबूल-करौंदे के झाड़ों में क्या आकर्षित करनेवाली कोई बात