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विभाव

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नहीं होती ? जो फारस की चाल के बगीचों के गोल चौखूॅटे कटाव, सीधी सीधी रविशें, मेहँदी के बने भद्दे हाथी-घोड़े, काट-छाँटकर सुडौल किए हुए सरो के पेड़ों की कतारे, एक पंक्ति में फूले हुए गुलाब आदि देखकर ही वाह वाह करना जानते हैं उनका साथ सच्चे भावुक सहृदयों को वैसा ही दुःखदायी होगा जैसा सजन को खलों का। हमारे प्राचीन पूर्वज भी उपवन और वाटिकाएँ लगाते थे। पर उनका आदर्श कुछ और था। उनका आदर्श वहीं था जो अब तक चीन और योरप में थोड़ा बहुत बना हुआ हैं। आजकल के पार्को में हम भारतीय आदर्श की छाया पाते हैं। हमारे यहाँ के उपवन वन के प्रतिरूप ही होते थे। जो वनों में जाकर प्रकृति का शुद्ध स्वरूप और उसकी स्वच्छंद क्रीड़ा नहीं देख  सकते थे वे उपवनों में ही जाकर उसका थोड़ा बहुत अनुभव कर  लेते थे। वे सर्वत्र अपने को ही नहीं देखना चाहते थे। पेड़ों को मनुष्य की कवायद करते देखकर ही जो मनुष्य प्रसन्न होते हैं वे अपना ही रूप सर्वत्र देखना चाहते हैं; अहंकार-वश अपने से बाहर प्रकृति की ओर देखने की इच्छा नहीं करते। 
काव्य का जो चरम लक्ष्य सर्वभूत को आत्मभूत कराके अनुभव कराना है ( दर्शन के समान केवल ज्ञान कराना नहीं ) उसके साधन में भी अहंकार का त्याग आवश्यक है। जब तक इस अहंकार से पीछा न छूटेगा तब तक प्रकृति के सब रूप मनुष्य की अनुभूति के भीतर नहीं आ सकते । खेद है कि फारस की उस महफिली शायरी का कुसंस्कार भारतीयों के हृदय में भी इधर बहुत दिनों से जम रहा है जिसमें चमन, गुल, बुलबुल, लाला, नरगिस आदि का ही कुछ वर्णन विलास की सामग्री के रूप में होता है–कोह, बयाबान आदि का उल्लेख किसी भारी विपत्ति  या दुर्दिन के ही प्रसंग में मिलता है। फारस में क्या और पेड़-पौदे