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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा नहीं होते ? पर उनसे वहाँ के शायरों को कोई मतलब नहीं । अलबुर्ज जैसे सुंदर पहाड़ का विशद वर्णन किस फारसी काव्य में है ? पर इधर वाल्मीकि को देखिए । उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में केवल मंजरियों से छाए हुए रसीलों, सुरभित सुमनों से लदी हुई मालती-लताओं, मकरंद-पराग-पूरित सरोजों का ही वर्णन नहीं किया ; इंगुदी, अंकोट, तेंदू, बबूल और बहेड़े आदि जंगली पेड़ों का भी पूर्ण तल्लीनता के साथ वर्णन किया है। इसी प्रकार योरप के कवियों ने भी अपने गाँव के पास से बहते हुए नाले के किनारे उगनेवालीं झाड़ी या घास तक का नाम आँखों में आँसू भरकर लिया है। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को इसके व्यापारन्गर्त से बाहर प्रकृति के विशाल और विस्तृत क्षेत्र में ले जाने की शक्ति फारस की परिमित काव्य-पद्धति में नहीं हैभारत और योरप की पद्धति में है। स्वाभाविक सहृदयता केवल अद्भुत, अनूठी, चमत्कारपूर्ण, विशद या असाधारण वस्तुओं पर मुग्ध होने में ही नहीं है। जितने आदमी भेड़ाघाट, गुलमर्ग आदि देखने जाते हैं वे सब प्रकृति के सचे आराधक नहीं होते ; अधिकांश केवल तमाशबीन होते हैं। केवल असाधारणत्व के साक्षात्कार की यह सूचि स्थूल और भद्दी है, और हृदय के गहरे तलों से संबंध नहीं रखती । जिस रुचि से प्रेरित होकर लोग आतशबाजी, जलूस वगैरह देखने दौड़ते. हैं यह वही रुचि है। काव्य में इसी असाधारणत्व और चमत्कार की ओछी रुचि के कारण बहुत से लोग अतिशयोक्तिपूर्ण अशक्त वाक्यों में ही काव्यत्व समझने लगे। कोई बिहारी के विरह-वर्णन पर सिर हिलाता है, कोई ‘यार’ की कमर गायब होने पर वाह| १ [ देखिए वर्डस्वर्थ की ‘एडमॉनीशन हुए है वैलर' शीर्षक कविता ।]