पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१२८

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विभाव

निरीक्षण करने लगे उस समय पाले से धुंधली पड़ी हुई चाँदनी | उन्हें ऐसी दिखाई पड़ी जैसी धूप से साँवली पड़ी हुई सीता ज्योत्स्ना तुषारमलिनी पौर्णमास्यां न रानते ।। | सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न तु शोभते ।। इसी प्रकार सुग्रीव को राज्य देकर माल्यवान् पर्वत पर निवास करते हुए, सीता के विरह में व्याकुल, भगवान् रामचंद्र को वर्षा आने पर प्रीष्म की धूप से संतप्त पृथ्वी जल से पूर्ण होकर सीता के समान आँसू बहाती हुई दिखाई देती है, काले काले बादलों के बीच में चमकती हुई बिजली रावण की गोद में छटपटाती हुई वैदेही के समान दिखाई पड़ती है और फुले हुए अर्जुन के वृक्षों से युक्त तथा केतकी से सुगंधित शैल ऐसा लगता है जैसे शत्रु से रहित होकर सुग्रीव अभिषेक की जलधारा से सींचा जाता हो । यथा एघा धर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुता । सीतेव शोकसन्तप्ता मही वाष्पं विमुञ्चति ।। नीलमेघाश्रिता विद्युत्फुरन्ती प्रतिभाति माम् ।। : स्फुरन्ती रावणास्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ।। । एष फुललार्जुनः शैलः केतकीरधिवासितः ।।

  • सुमोव इव शान्तारिधराभिरभिषिच्यते ।।
ऐसा अनुमान होता है कि कालिदास के समय से, या उसके । कुछ पहले ही से, दृश्य-वर्णन के संबंध में कवियों ने दो मार्ग

निकाले । स्थल-वर्णन में तो वस्तु-वर्णन की सूक्ष्मता कुछ दिन = तक वैसी ही बनी रही, पर ऋतु-वर्णन में चित्रण उतना अविश्यक नहीं समझा गया जितना कुछ इनी-गिनी वस्तुओं का * ऋथन मात्र करके भावों के उद्दीपन का वर्णन । जान पड़ता है,