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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा ऋतु-वर्णन वैसे ही फुटकर पद्यों के रूप में पढ़े जाने लगे जैसे बारहमासा पढ़ा जाता है। अतः उनमें अनुप्रास और शब्दों के माधुर्य आदि का ध्यान अधिक रहने लगा। कालिदास के ऋतुसंहार और रघुवंश के नवे सर्ग में सन्निविष्ट वसंत-वर्णन से इसका कुछ आभास मिलता है। उक्त वर्णन के श्लोक इस ढंग के हैं कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तवुनु षट् पदकोकिलकूजितम् । इति यथाक्रमयाविरभून्मधुमवतीमवतीर्य वनस्थलीम् ।। रीति-ग्रंथों के अधिक बनने और प्रचार पाने से क्रमशः यह ढंग जोर पकड़ता गया। प्राकृतिक वस्तु-व्यापार का सूक्ष्म निरीक्षण धीरे धीरे कम होता गया। किस ऋतु में क्या क्या वर्णन करना चाहिए, इसका आधार ‘प्रत्यक्ष अनुभव नहीं रह गया, *आप्त शब्द’ हुआ। वर्षा के वर्णन में जो कदंब, कुटज, इंद्रवधू, मेघगर्जन, विद्युत् इत्यादि का नाम लिया जाता रहा वह इसलिये कि भगवान् भरत मुनि की आज्ञा थी कदम्बनिम्नकुटनैः शालैः सेन्द्रगोपकैः । । मेधैवतैः सुखरुपरौंः प्रावृटकाल प्रदर्शयेत् ।। कहना नहीं होगा कि हिंदी के कवियों के हिस्से में यहीं आया। गिनी गिनाई वस्तुओं के नाम लेकर अर्थ-ग्रहण मात्र कराना अधिकतर उनका काम हुआ, सूक्ष्म रूप-विवरण और आधारआधेय की संश्लिष्ट योजना के साथ बिंब-ग्रहण' कराना नहीं । | ऋतु-वर्णन की यह प्रथा निकल ही रही थी कि कवियों को भी औरों की देखादेखी दंगल का शौक पैदा हुआ। राजसभाओं में ललकार कर देढ़ी-मेढ़ी विकट समस्याएँ दी जाने लगीं, और कवि लोग उपमा, उत्प्रेक्षा आदि की अद्भुत अद्भुत उक्तियों द्वारा उनकी पूर्ति करने लगे । ये उक्तियाँ जितनी ही बेसिर-पैर की