पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१३

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कि भरत मुनि ने भी रस को अलौकिक नहीं कहा है। रस को अलौकिक कहने की चाल दार्शनिक व्याख्याकारों के कारण पड़ गई है। भारतीय शास्त्र-चिंतक साहित्य को 'विज्ञान' न मानकर 'दर्शन' मानता है, आत्मा या चैतन्य का विचार दर्शन का लक्षण है।

आचार्य शुक्ल ने सन् १९२२ के आसपास काव्य-मीमांसा के लिये कुछ निबंध लिखे थे, जो पृथक् पृथक् शीर्षकों में लिखे गए थे, पर परस्पर संबद्ध थे। वे पेंसिल से लिखा करते थे—लेटे लेटे। पर लिखावट बहुत स्पष्ट और सुवाच्य हुआ करती थी। दीर्घकाल ने अक्षरों की रेखाएँ मंद कर दीं, कुछ पृष्ठ फटकर निकल गए। सारी सामग्री इतस्ततः होकर अस्त-व्यस्त हो गई। कुछ अंश अधूरे ही रह गए, उनकी केवल टिप्पणियाँ मात्र हैं; उनका पल्लवन न हो सका। विचार-शृंखला और विभाजनविधि का कोई लेखा न होने के कारण समस्त सामग्री में एकसूत्रता स्थापित करना दुरूह कार्य था। हस्तलिखित और मुद्रित निबंध-राशि का आलोड़न करके किसी प्रकार अखंडता की स्थापना की गई। निबंधों के बीच स्थान स्थान पर विचार-सरणी के संकेत मिले और संपादक ने उन्हीं के बल पर पूरे ग्रंथ की नियोजना कर दी। मूल हस्तालेख के कई निबंध शुक्लजी ने परिमार्जित और प्रवर्धित करके प्रकाशित करा दिए थे। अतः यह परिमार्जित रूप ही संकलित किया गया और जो अंश मूल में उससे अधिक था उसे यथास्थान जोड़ दिया गया। जो अंश फटकर निकल गया, उसकी पूर्ति अन्यत्र से की गई; फिर भी एक-आध अध्याय त्रुटित रह ही गया है। संपादक ने अनी ओर से एक शब्द भी कहीं नहीं बढ़ाया है; बिंदु-विसर्ग भी नहीं। जो कुछ है, शुक्लजी के ही शब्दों में है। संपादक ने पाद-टिप्पणी आदि के रूप में जो अंश विषय को और स्पष्ट करने या संकेत स्थलों के निर्देशार्थ बढ़ाए हैं वे सब बड़े कोष्ठक [ ]से घिरे हुए हैं। काव्यप्रकाश के उद्धरण वामनाचार्य झड़कीकर की बालबोधिनी टीका से रखे