पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१३०

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विभाव -- होतीं उतनी ही वाहवाही मिलती । काश्मीर के मंखक कवि जब । अपना श्रीकंठचरित-काव्य काश्मीर के राजा की सभा में ले * गए तब वहाँ कन्नौज के राजा गोविंदचंद्र के दूत सुत्न ने उन्हें = यह समस्या दी एतद्वभुकचानुकारि किरणं राजद्दोऽहः शिर श्छेदाभं वियतः प्रतीचि निपतत्यब्धौ धेर्मण्डलम् ।। अर्थात् नेवले के बालों के सदृश पीली किरणों को प्रकट करता हुआ सूर्य का यह बिंब, चंद्रमा का द्रोह करनेवाले दिन के कटे हुए सिर के समान, आकाश से पश्चिम-समुद्र में गिरता है। राज=राजा, चंद्रमा) इसकी पूर्ति मंखक ने इस प्रकार की एषाधि पुरमा प्रियानुगमनं प्रोद्दामकाष्ठ स्विते | सन्ध्याशौ विरचय्य तार कमिषाङजातास्थिशेषस्थितिः ॥ अर्थात् दिशाओं में उत्पन्न संध्यारूपी प्रचंड अग्नि में अपने प्रियतम का अनुगमन करके आकाश की श्री ( शोभा ) भी तारों के बहाने ( रूप में ) अस्थिशेष हो गई ।( काप्नोत्थिते=काष्ठा + उत्थिते और काष्ठ + उत्थिते । काष्ठा = दिशा; काष्ठ= लकड़ी )। मतलब यह किं सती हो जानेवाली आकाश-श्री की जो हड्रियाँ जुद्द गई वे ही ये तारे हैं। . जो कल्पना पहले भावों और रसों की सामग्री जुदाया करती थी वह बाजीगर का तमाशा करने लगी। होते होते यहाँ तक हुआ कि “पिपीलिका नृत्यति वह्निमध्ये", और “मोम के मंदिर माखन के मुनि बैठे हुतासन आसन मारे” की नौबत आ गई। कहाँ ऋषि-कवि का पाले से धुंधले चंद्रमा का मुँह की भाप से अंधे दर्पण के साथ मिलान और कहाँ तारे और हल्लियाँ ! वैर, यहाँ दोनों का रंग तो सफेद है, और आगे चलकर दो यह