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रस-मीमांसा



दशा हुई कि दो दो वस्तुओं को लेकर सांग रूपक बाँधते चले जाते हैं, वे किसी बात में परस्पर मिलती-जुलती भी हैं या नहीं इससे कोई मतलन नहीं, सांग रूपक की रस्म तो अदा हो रही हैं। दूसरी बात विचारने की यह है कि संध्यासमय अस्त होते हुए सूर्य को देख मंखक कवि के हृदय में किसी भाव का उदय हुआ या नहीं, उनके कथन से किसी भाव की व्यंजना होती है। या नहीं ? यहाँ अस्त होता हुआ सूर्य ‘आलंबन' और कवि ही आश्रय माना जा सकता है। पर मेरे देखने में तो यहाँ कवि का हृदय एकदम तटस्थ हैं। उससे सारे वर्णन से कोई मतलब ही नहीं । उसमें रति, शोक आदि किसी भाव का पता नहीं लगता । ऐसे पद्यों को काव्य में परिगणित देख यदि कोई “वाक्यं रसात्मक काव्यम” की व्याप्ति में संदेह कर बैठे तो उसका क्या दोष ? ‘ललाई के बीच सूर्य का विंब समुद्र के छोर पर डूबा और तारे छिटक गए इतना ही कथन यदि प्रधान होता तो वह दृश्य कवि और श्रोता दोनों के रति-भाव का आलंबन होकर काव्य भी कहला सकता था। पर अलंकार से एकदम आक्रांत होकर वह काव्य का स्वरूप ही खो बैठा । यदि कहिए कि यहाँ अलंकार द्वारा उक्त दृश्य-रूप वस्तु व्यंग्य है तो भी ठीक नहीं ; क्योंकि 'विभाव 'व्यंग्य नहीं हुआ करता । ‘विभाव' में शब्द द्वारा उन वस्तुओं के स्वरूप की प्रतिष्ठा करनी होती है जो भावों का आश्रय, आलंबन और उद्दीपन होती हैं। जव यह वस्तु-प्रतिष्ठा हो लेती है तब भावों के व्यापार का आरंभ होता है। मुक्तक में जहाँ नायक-नायिका का चित्रण नहीं होता वहाँ उनका ग्रहण' आक्षेेप द्वारा होता है, व्यंजना द्वारा नहीं ।

दृश्य-वर्णन में उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का स्थान कितना गौण है इसकी मनोविज्ञान की रीति से भी परीक्षा हो सकती हैं ।