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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा तां कस्याञ्चिद्भवनवलभी सुप्तपारावताया | नीत्वा रात्रि चिरविलसनाखिन्नविद्युत्कलः । | -[ मेघदूत, पूर्वं मेघ, ४२ ।] गौरै हमारे घर के भीतर आ बैठते हैं, बिल्ली अपना हिस्सा या तो म्याऊँ म्याऊँ करके माँगती हैं या चोरी से ले जाती है, कुत्ते घर की रखवाली करते हैं और वासुदेवजी कभी कभी दीवार फोड़कर निकल पड़ते हैं। बरसात के दिनों में जव सुरखीचूने की कड़ाई की परवा न करके ही हरी घास पुरानी छत पर निकल पड़ती है तब मुझे उसके प्रेम का अनुभव होता है। वह मादों में ढूंढती हुई आती है और कहती है कि तुम मुझसे क्यों। दूर दूर भागे फिरते हो ? | वनों, पर्वतों, नदी-नालों, कछारों, पटपरों, खेतों, खेतों की नालियों, घास के बीच से गई हुई ढुर्रियों, हुल-बैलों, झोपड़ी और श्रम में लगे हुए किसानों इत्यादि में जो आकर्पण इमारे लिये है वह हमारे अंतःकरण में निहित वासना के कारण हैं, असाधारण चमत्कार या अपूर्व शोभा के कारण नहीं । जो केवल पावस की हरियाली और वसंत के पुष्प-हास के समय ही बनीं और खेत को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिन्हें केवल मंजरी-मंडित रसालों, प्रफुल्ल कदंबू और सघन मालती-कुंजों को ही दर्शन प्रिय लगता है, ग्रीष्म के खुले हुए पटपर, खेत और मैदान, शिशिर की पत्र-विहीन नंगी वृक्षावली और झाड़-बबूल आदि जिनके हृदय को कुछ भी स्पर्श नहीं करते उनकी प्रवृत्ति राजसी समझनी चाहिए। वे केवल आले. विलास या सुख की सामग्री प्रकृति में हूँढते हैं। उनमें उस समय की कमी है जो सत्ता-मात्र के साथ एकीकरण की अनुभूति द्वारा लीन करके आत्मसत्ता के विभुत्व का आभास देती है। संपूर्ण सत्ता, क्या