पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१३४

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भौतिक क्या आध्यात्मिक, एक ही परम सत्ता या परम भाव के अंतर्गत है, अतः ज्ञान या तर्क-बुद्धि द्वारा हम जिस अद्वैत भाव तुक पहुँचते हैं उसी भाव तक इस ‘सत्त्व' गुण के बतं पर हमारी रागारिमका वृत्ति भी पहुँचती है। इस प्रकार अंततः दोनों वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। यदि हम ज्ञान द्वारा सर्वभूत को आत्मवत् जान सकते हैं तो रागात्मिका वृत्ति द्वारा उसका अनुभव भी कर सकते हैं। तर्क-बुद्धि से हारकर परम ज्ञानी भी इस 'स्वानुभूति 'का आश्रय लेते हैं। अतः परमार्थ दृष्टि से दर्शन और काव्य दोनों अंतःकरण की भिन्न भिन्न वृत्तियों का श्रेय लेकर एक ही लक्ष्य की ओर ले जानेवाले हैं। इस व्यापक दृष्टि से काव्य का विवेचन करने से लक्षण-ग्रंथों में निर्दिष्ट संकीर्णता कहीं कहीं बहुत खटकतीं हैं। वन, उपवन, चाँदनी इत्यादि को दांपत्य रति के उद्दीपन मात्र मानने से संतोष नहीं होता।

पहले कहा जा चुका है कि रस के संयोजक जो विभाव आदि हैं वे ही कल्पना के प्रधान क्षेत्र हैं। कवि की कल्पना का पूर्ण विकास उन्हीं में देखना चाहिए। पर वहाँ कल्पना को कवि की अनुभूति के आदेश पर चलना पड़ता है, उसकी श्रेष्ठता कवि की सहृदयता से संबंध रखती हैं, अत: उस कृत्रिमता के काल में जिसमें कविता केवल अभ्यास-गम्य समझी जाने लगी, कल्पना का प्रयोग काव्य का प्रकृत स्वरूप संघटित करने में कम होकर अलंकार आदि बाह्य आडंबर फैलाने में अधिक होने लगा। पर विभावन द्वारा जब वस्तु-प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से हो ले तब आगे और कुछ होना चाहिए । विभाव वतु-चित्रमय होता है; अतः जहाँ वस्तु श्रोता या पाठक के भावों का आलंबन होती है वहाँ अकेला उसका पूर्ण चित्रण ही काव्य कहलाने में समर्थ हो सकता है। पिछले कवियों में इस वस्तु-चित्र का विस्तार क्रमशः