पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१४

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गए हैं और साहित्यदर्पण के अंवतरण शालग्राम शास्त्री की हिंदी विमला टीका से ।

शुक्लजी ने शब्दशक्ति का विचार टिप्पणियों के रूप में ही कर पाया था, उसका विस्तार नहीं हो सका । टिप्पणियाँ भी अँगरेजी में हैं। संपादक ने उन्हें हिंदी में उन्हीं की शैली से रूपांतरित कर दिया है और अँगरेजी मूल भी परिशिष्ट में ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है। तत्त्व वस्तु स श्राचार्य की है, ज्यों की त्यो : अकार खड़ा कर दिया है अंतेवासी ने । नामकरण की ढिठाई भी उसी ने की हैं । इस रूप में शुक्लजी की काव्य-मीमांसा संबंधी विचारधारा का, जो रसोन्मुखी है, पूरा पूरा पता चल जाता है और उस मानदंड की भी उपलब्धि हो जाती है जिसे लेकर दें साहित्य-समीक्षा के क्षेत्र में उतरे थे। इसके अवलोकन से शास्त्र-चिंतक और समीक्षक शुक्लजी के स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं। शुक्लजी स्वच्छंद चिंतक थे। उन्होंने भारतीय परंपरा को मानते हुए भी अंधानुसरण कहो नहीं किया है। आधुनिक पश्चिमी शास्त्र-मीमांसा को विदेशी कहकर त्यागा भी नहीं है। यथास्थान उसके सत् पक्ष का भी संग्रह है । पंडितराज जगन्नाथ के अनंतर रस-मीमांसा से शास्त्रीय विद्वान् एक प्रकार से विरत हो गए थे। शुक्ल जी ने अपनी स्वतन्त्र चेतना द्वारा उसे पुन: उजोवित किया। भारत किसी भी भाषा में काव्य, रस आदि का स्वतंत्र विवेचन आ- धुनिक युग में नहीं मिलता। जहाँ जो है वह या तो शास्त्रों का अनुवाद-अनुगमन या पश्चिम की अनुकृति मात्र है । हिन्दी में भी आज तक संकलन-संग्रह से ही उपबृंहण होता रहा है। ऐसी स्थिति में साहित्य-चिंतक शुक्लजी के महत्व की कल्पना सहज है। अरोच की वृत्तिवाले पंडितों को उनकी बहुत सी बातें न रुचेंगी, वे स्वयम् भी पंडित के कोलाहल की चर्चा किया करते थे । उन्होंने कदाचित् अपनी यह पुस्तक बहुत पहले संवर्धित और परिष्कृत रूप में प्रकाशित करा दी होती, यदि पंडित-मंडली ने विलायती मत कहकर उनको चिंता की चर्चा न चलाई