पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१४०

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विभाव खेद है कि जिस कल्पना का उपयोग मुख्यतः पदार्थों का रूप संघटित करने, प्राकृतिक व्यापारों को प्रत्यक्ष करने और इस प्रकार किसी दृश्य-खंड के ब्योरे पूरे करने में होना चाहिए था उसका प्रयोग पिछले कवियों ने उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत आदि की उद्भावना करने में ही अधिक किया। महाकवि माघ प्रबंध रचना में जैसे कुशल थै वैसे ही उसके पक्षपाती भी थे ; पर उनकी प्रवृत्ति हम प्रस्तुत वस्तु-विन्यास की ओर कम और अलं-- कार-योजना की और अधिक पाते हैं। उनके दृश्य-वर्णन में वाल्मीकि आदि प्राचीन कृवियों का सा प्रकृति को रूप-विश्लेषण नहीं है; उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, अर्थातरन्यास आदि की भर्मार है। उदाहरण के लिये उनके प्रभात-वर्णन से कुछ श्लोक दिए जाते हैंअरुण जलचराज्ञी मुग्धद्दस्ताग्रदा बहुलमधुपमाला कज्ज्ञलेन्दीवराची । अनुपतति विरावैः पत्रिर्या व्याइरन्ती रजनिमचिरज्ञाता पूर्व सन्ध्या सुतेव ।। वित्तपृथुवरातुल्यरूपैर्मयूखैः कलश इव गरीयान् दिभिराकृध्यमा: । कृतचपलबिइङ्गालापको लाइलाभिर्जलनिधिजलमध्यादेष उतायतेऽर्कः ।। व्रजति विषयमणामंशुमालीं न यावत् तिमिरमखिलमस्तं तावदेवाऽऐन । परपरिभवितेजस्तन्वतामाशु कर्तुं प्रभवति दि विपक्षोछेदमप्रेसरोऽपि ।।*

  • अकया कमज रूपों को मन हाथ-पैरवानी, मधुपमाळापी कमलसुक कमज-नेत्रवानी, पक्षियों के छल्लरवरूपी वनवाळी सह प्रभासबेला सयौञात वालिका के समान रात्रिरूपी अपनी माता की ओर तपकी ॥ रही है। जिस प्रकार घड़ा ब्रींचते समय स्त्रियाँ कुछ कोवाइज करती है असी प्रकार के पक्षियों के कोजाइब से पूर्ण दियारूपी स्त्रियाँ, दूर तक कैवी दुई किरणरूपी रस्सिर्यों से, सूर्यरूपी घड़े को बाँधकर वो मारी जश के समनि समुद्र के भीतर से ह्रींचकर ऊपर निकाब रही है।