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रस-मीमांसा

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૧૨ रस-मीमांसा | इस वर्णन में यह स्पष्ट लक्षित होता है कि कवि को दृश्य की एक एक सूक्ष्म वस्तु और व्यापार प्रत्यक्ष करके चित्र पूरा करने की उतनी चिंता नहीं है जितनी कि अद्भुत अद्भुत उपमा म आदि के द्वारा एक कौतुक खड़ा करने की । पर काव्य कौतुक नहीं है, उसका उद्देश्य गंभीर है। | पाश्चात्य काव्य-समीक्षक किसी वणन के ज्ञातृ-पक्ष ( Subs. " jective ) और ज्ञेय-पक्ष (0bjective)-अथवा विपयि-पक्ष और विषय-पक्ष-दो पक्ष लिया करते हैं। जो वस्तुएँ बाया प्रकृति में हम देख रहे हैं उनका चित्रण शेय-पक्ष के अंतर्गत हुआ, और उन वस्तुओं के प्रभाव से हमारे चित्त में जो भाव या आभास उत्पन्न हो रहे हैं वे ज्ञातृ-पक्ष के अंतर्गत हुए। अतः उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के आधिक्य के पक्षपाती कह सकते हैं कि पिछले कवियों के दृश्य-वर्णन ज्ञातृ-पक्ष-प्रधान हैं। ठीक है। पर वस्तु-विन्यास प्रधान कार्य है। यदि वह अच्छी तरह बन पड़ा तो पाठक के हृदय में दृश्य के सौंदर्य, भीषणता, विशालता इत्यादि का अनुभव थोड़ा बहुत आप से आप होगा। वस्तुओं के संबंध में इन भावों को ठीक ठीक अनुभव करने में सहारा देने के लिये कवि कहीं बीच बीच में अपने अंतःकरण की भी झलक दिखाता चले तो यहाँ तक ठीक है। यह झलक दो प्रकार की हो सकती हैं-भावमय और अपर-वस्तुमय । जैसे, किसी ने कहा-‘तालाब के उस किनारे पर खिले कमल कैसे मनोहर लगते हैं !”। यहाँ कमलों के दर्शन से सौंदर्य का सूर्य के उदय होने से पहले ही सूर्य के साथी अरुण ने सारा अंधकार दूर कर दिया ; वैरियों को नष्ट करनेवाले स्वामियों के आगे चनेवाला सेवक भी शत्रुओं को मार भगाने में समर्थ होता है।