पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१४४

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एक पर्वत-स्थली का दृश्य वर्णन करके किसी को सुनाइए । फिर महीने दो महीने पीछे उससे उसी दृश्य का कुछ वर्णन करने के लिये कहिए। आप देखेंगे कि उस संपूर्ण दृश्य की सुसंगत योजना करनेवाली वस्तुओं और व्यापारों में से शायद ही किसी का उसे स्मरण हो । इसका मतलब यह है कि उस वर्णन के जितने अंश पर हृदय की तल्लीनता के कारण पूरा ध्यान रहा इसका संस्कार बना रहा; और इसलिये संकेत पाकर उसकी तो पुनरुद्भावना हुई, शेष अंश छूट गया।

खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी की कविता का उत्थान उस समय हुआ जब संरकृत-काव्य लक्ष्यच्युत हो चुका था । इसी से हिंदी की कविताओं में प्राकृतिक दृश्यों को वह सूक्ष्म वर्णन नहीं मिलता जो संस्कृत की प्राचीन कविताओं में पाया जाता है। केशव के पीछे तो प्रबंध-काव्यों का बनना एक प्रकार से बंद ही हो गया। आचार्य बनने का ही हौसला रह गया, कवि बनने का नहीं। अलंकार और नायिका-भेद के लक्षण ग्रंथ लिखकर अपने रचे उदाहरण देने में ही कवियों ने अपने कार्य की समाप्ति मान ली। रीतिग्रंथ लिखने के कारण ही संस्कृत में कोई कवि नहीं कहलाया। साहित्य के आचार्यों में सब कवि नहीं थे। ऐसे फुटकर पद्य-रचयिताओं की परिमित कृति में प्राकृतिक दृश्य ढूँढना ही व्यर्थ है। श्रृंगार के उद्दीपन के रूप में 'षट्ऋतु' का वर्णन अवश्य कुछ मिलता है; पर उसमें बाह्य प्रकृति के रूपों का प्रत्यक्षीकरण मुख्य नहीं होता, नायक-नायिका का प्रमोद या संताप ही मुख्य होता है। अब रहे दो-चार आख्यानकाव्य । उनमें दृश्य-वर्णन को स्थान ही बहुत कम दिया गया है। अगर कुछ वर्णन परंपरा-पालन की दृष्टि से है भी तो वह अलंकारप्रधान है। उपमा, उत्प्रेक्षा आदि की भरमार इस