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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा बात की स्पष्ट सूचना दे रही है कि कवि का मन दृश्यों के प्रत्यक्षीकरण में लगा नहीं है, उचट उचटकर दूसरी ओर जा पड़ा है। | कोई एक वस्तु सामने आई कि उपमा के पीछे परेशान । श्याम के ‘छबीले मुख' का प्रसंग आया। बस, अंधे सूरदास चारों ओर उपमा टटोल रहे हैं | बलि बलि जाउँ छवीले मुख की, या पटतर को को है ? या बानक उपमा दोबे को सुकभि कहा टकटों ? उपमाएँ यदि मिलती गई तब तो सब ठीक ही ठीक, एक वस्तु के ऊपर उपमा पर उपमा, उपेक्षा पर उत्प्रेक्षा लादते चले जा रहे हैं। “हरि-कर राजत माखन, रोटी, बस, इतनी ही सी तो बात है, उस पर मन बारिज ससि-बैर नानि जिय गच्चो सुधांसुई घोटी ; मन बराह भूधर-सह पृथिवी धरी दसनन की कोटो । एक छोटी सी रोटी की हकीकत ही कितनी, उस पर पहाड़ के सहित जमीन का बोझा लाकर रख दिया ! उपमाएँ यदि न मिली तो बस, ‘शेष, शारदा' पर फिरें, उनकी इज्जत लेने पर उतारू ! | मलिक मुहम्मद जायसी की 'पद्मावत' यद्यपि एक आख्यानकाव्य है पर उसमें भी स्थल-वर्णन सूक्ष्म नहीं है। सिंहल द्वीप के गढ़, राजद्वार, बगीचें आदि का वर्णन है। बगीचे के वर्णन में पेड़ों और चिड़ियों की फेहरिस्त है ; जो बहेलियों से भी मिल्ल सकती है ? प्राप्त प्रथा के अनुसार पद्मावती के संयोग-सुख के संबंध में ‘पट्ऋतु' और नागमती की विरह-वेदना के प्रसंग में ‘बारहमासा' अलवत है। दोनों का ढंग वही है जो ऊपर कहा । गया है। दो उदाहरण यथेष्ट होंगे