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विभाव १३३ चई दिसि बन संपन्न, बिग मृग बोलत सौभा पावत ; जनु सुनरे सन्देस-पुर प्रमुदित प्रा-सकल सुख छावत । सोहत स्याम जलद मृदु घोरत घातु-रँगमगे सुगनि ; मनहुँ श्रादि अंमोल विराजत सेवित सुर-मुनि-शृंगनि । सिखर परति घन-घटहिं मिलति बगपाँति सो छवि कवि बरनी । आदि-वराई बिइरि बारिधि मन उठ्यो । दसन घरि अरनी । मल-जुत बिमल सिलनि झलकत नभ-बन-प्रतिबिंब तरंग ; मानहुँ जग-रचना विचित्र विलसति बिराट-अंग-अंग । मंदाकिनिदि मिलत झरना झरि झरिं, भरि भरि जल छे ।। 'तुलसी' सकल सुकृत-सुख लागे मनों राम-भक्ति के पाछे। बाह्य प्रकृति के संबंध में सूरदासजी की दृष्टि बहुत परिमित हैं। एक तो ब्रज की गोचारण-भूमि के बाहर उन्होंने पैर ही नहीं निकाला, दूसरे उस भूमि को भी पूर्ण चित्र उन्होंने कहीं नहीं खींचा। उद्दीपन के रूप में केवल दुम, बल्ली और यमुना के किनारेवाले कदंब का उल्लेख-भर बार बार मिलता हैं। गोपियों के विरह के प्रसंग में रीति के अनुसार पावस आदि का वर्णन अवश्य है; पर कहने की आवश्यकता नहीं कि उसमें पावस स्वरूप-स्थित नहीं हैं, वियोगिनी गोपियों के मानस-प्रदत्त रूप में है—कहीं वह कृष्ण-रूप में हैं, कहीं चढ़ाई करते हुए राजा के रूप में, इत्यादि ; जैसे आजु घन स्याम की अनुहारि । उनइ आए साँवरे से, सजनी ! देखु रूप को आरि।" इंद्रधनुष मानों पीतबसन-छबि, दामिनि दसन बिचारि ; बनु बगपाँति माल मोतिन की, चितवत हितहिनिहारि ।