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रस-मीमांसा

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रस-मीमाँसा अथवा तुम्हारो गोकुल हो, ब्रजनाथ ! घेन्यो ३ अरि चतुरंगिनि लै मनमय-सेना साथ । गरजत अति गंभीर गिरा, मनु मैगल मुत्त अपार ; धुरवा धूरि उड़त रथ पायक घोरन की खुरतार । केवल कहीं कहीं नियत वस्तुओं की कुछ अधिक गिनती-भर मिलती है; जैसे बरन-बरन अनेक जलघर अति मनोहर बेष ; तिहि समय, सखि ! गगन-सोभा बहि ते सुबिसेष । उड़त खग, बग-बूंद राजत, रटत चातक, मोर ; बहुल बिधि-बिघि रुचि बढ़ावत दामिनी घन-घोर । धरनि तृन तनु रोम पुलकित पिय-समागम जानि; द्रुमनि बर बल्ली बियोगिनि मिलति है पहिचानि । होस, सुक, पिक, सारिका, अलि गुंज नाना नाद ; मुदित मंडल भेकमेकीं, बिग विगत बिषाद । कुटन, कुमुद, कदंब, कोबिद् कनक आरि, सुकै ; केतकी करबीर, बेलउ बिमल बहु बिघ मंजु । यह नामावली निरीक्षण का फल नहीं है। इसकी सूचना ‘कुमुद और ‘कोविद’ ( कोविदार ) पद दे रहे हैं। कचनार की शोभा वसंत-ऋतु में ही होती है, जब कि वह फुलता है; और कुमुद की तो पत्तियाँ भी वर्षा-काल में अच्छी तरह नहीं बढ़ी रहतीं। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि वस्तुओं की गिनती गिनाना ही वस्तु-विन्यास नहीं है। आस-पास की और वस्तुओं के बीच उनकी प्रकृत स्थापना से दृश्य के एक पूर्ण सुसंगत रूप की योजना होती है। मौर लगे हैं, समीर चलता है, कोयल बोलती है। इस प्रकार कहना केवल वस्तुओं और व्यापारों की गिनती गिनाना है। रीति-ग्रंथों में प्रत्येक ऋतु में वयं वस्तु